प्रभु के दर्शन कैसे करें?
पूर्व भूमिका:
किसी से “रिश्ता” जोड़ते समय बहुत सावधानी और चतुराई बरती जाती है.
पूरी छान बिन की जाती है,
परिवार के बारे में,
धंधे के बारे में,
चाल –चलन के बारे में,
पढाई के बारे में, इत्यादि.
फिर हम तैयारी करते हैं,
अच्छे से अच्छे कपड़े पहनते हैं.
सिर्फ अच्छे कपड़े होने पर भी हमें संतोष नहीं होता.
हम ये भी देखते हैं कि वो हम पर पूरी तरह “जच” रहे हैं या नहीं.
बातचीत के तरीके को इतना प्रभावशाली बनाने की कोशिश करते हैं
जितना हम “अन्य” समय में नहीं करते.
ऐसा क्यों?
इतनी “केयर” तो हम किसी से धंधा करने के समय भी नहीं करते
जबकि बात तो हर समय “धंधे” की ही करते हैं.
ऐसा इसलिए है कि हम “जीवन” भर के लिए एक “सम्बन्ध” बनाने जा रहे हैं.
मंदिर में “दर्शन” करने से पहले अब कुछ प्रश्न खुद से :
१. क्या भगवान से हमारा “सम्बन्ध” जुड़ गया है?
(इस बारे में तो अभी तक “विचार” ही नहीं किया).
२. जुड़ा तो “कब” जुड़ा?
(नहीं पता)
३. वो “सम्बन्ध” वैसा ही है या उसमें बढ़ोतरी हुई है?
(चेक करना बाकी है, ये प्रश्न ही कभी दिमाग में नहीं आया)
ये प्रश्न उनके लिए हैं तो ये कहते हैं कि मैं “मंदिर” “जाकर” “आ” रहा हूँ.
वो जाकर आने में देर नहीं लगाता,
क्योंकि मंदिर में बस “अटेंडेंस” लगाने के लिए जाता है.
प्रश्न:
क्या मात्र “अटेंडेंस” लगाने वाले स्टूडेंट को “शिक्षा” मिलती है?
उत्तर है : नहीं. परन्तु “अटेंडेंस” लगाने से उसे “एग्जाम” में बैठने की पात्रता जरूर मिल जाती है.
जिज्ञासा:
तो रोज मंदिर बस “दर्शन” करने के लिए गए और आये, उनकी पात्रता के बारे में क्या कहें?
उत्तर:
तो भी “धर्म” की एग्जाम में बैठने की “पात्रता” तो ले चुकें हैं
परन्तु “फ़ैल” होने के लिए!
क्योंकि “प्राप्त” कुछ किया ही नहीं.