क्या है मंत्र?
मन में मात्र “थोड़े से”
- श्रेष्ठतम शब्दों को गुणना
(जो पहले गुना (उच्चारण कर के बोला),
उससे “अधिक भाव” दूसरी बार “वही” शब्द बोलें तब हो,
इस प्रकार आगे से आगे गुणाकार होता जाए).
- जिनका “प्रभाव” अधिक हो, (अक्षर या शब्द भले कम हों)
- अत्यंत “रहस्यमयी” हो (उन शब्दों के प्रभाव को शब्दों में ना बताया जा सकता हो)
और - जो हमारी आत्मा के “विराट-स्वरुप” को हमारे ही सामने ला सके !
अनुभव:
- मन्त्र बोलते ही सबसे पहले “चित्त” में प्रसन्नता आती है.
- फिर मंत्र बोलते ही “शरीर” में “कम्पन” आता है.
- फिर मंत्र बोलते ही “आँखों” से “आंसूं” आते हैं.
- फिर मंत्र बोलते ही “आवाज” में “प्रभावकता” आती है,
- फिर मंत्र बोलते ही दूसरों पर “प्रभाव” पड़ने लगता है.
- फिर मंत्र बोलते ही “सभी” अपने हो जाते हैं.
- फिर मंत्र बोलते ही “राग-द्वेष” नहीं रहते हैं.
- फिर मंत्र भी छूट जाता है
प्राप्त करना कुछ भी नहीं रहता. - “आत्मा” स्वयं में रमण करता है.
- आश्चर्य तो इस बात का है वो किसी से जुड़ा ना रहकर भी
सबसे जुड़ा रहता है
और उनके कल्याण की ही बात करता है.
ये है “जिन-धर्म” जो “तीर्थंकरों” द्वारा “स्थापित” है
और “केवलियों” द्वारा प्रदत्त है.
गुरुओं द्वारा संचालित है.
विशेष:
आपके लिए श्रेष्ठ “गुरु” कौन हैं
- ये चिंतन अब आपको करना है !
अप्पा में सच्च भेसज्जा : सत्य की खोज स्वयं करो
- स्वयं भगवान् महावीर ने कहा है !
? महावीर मेरा पंथ ?