क्या है मंत्र?


मन में मात्र “थोड़े से”

  1. श्रेष्ठतम शब्दों को गुणना

(जो पहले गुना (उच्चारण कर के बोला),
उससे “अधिक भाव” दूसरी बार “वही” शब्द बोलें तब हो,
इस प्रकार आगे से आगे गुणाकार होता जाए).

  1. जिनका “प्रभाव” अधिक हो, (अक्षर या शब्द भले कम हों)
  2. अत्यंत “रहस्यमयी” हो (उन शब्दों के प्रभाव को शब्दों में ना बताया जा सकता हो)
    और
  3. जो हमारी आत्मा के “विराट-स्वरुप” को हमारे ही सामने ला सके !

अनुभव:


  1. मन्त्र बोलते ही सबसे पहले “चित्त” में प्रसन्नता आती है.
  2. फिर मंत्र बोलते ही “शरीर” में “कम्पन” आता है.
  3. फिर मंत्र बोलते ही “आँखों” से “आंसूं” आते हैं.
  4. फिर मंत्र बोलते ही “आवाज” में “प्रभावकता” आती है,
  5. फिर मंत्र बोलते ही दूसरों पर “प्रभाव” पड़ने लगता है.
  6. फिर मंत्र बोलते ही “सभी” अपने हो जाते हैं.
  7. फिर मंत्र बोलते ही “राग-द्वेष” नहीं रहते हैं.
  8. फिर मंत्र भी छूट जाता है
    प्राप्त करना कुछ भी नहीं रहता.
  9. “आत्मा” स्वयं में रमण करता है.
  10. आश्चर्य तो इस बात का है वो किसी से जुड़ा ना रहकर भी
    सबसे जुड़ा रहता है
    और उनके कल्याण की ही बात करता है.

ये है “जिन-धर्म” जो “तीर्थंकरों” द्वारा “स्थापित” है
और “केवलियों” द्वारा प्रदत्त है.

गुरुओं द्वारा संचालित है.

विशेष:


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