आज के श्रावक क्या जीवन भर “FIRST STANDARD” में ही बैठे रहेंगे?

20 वर्ष के जवान से लेकर
70 वर्ष के “बूढ़े बच्चे “(!!)

बचपन में सीखे “नवकार” को सिर्फ रटना आया है,
बुढ़ापे के कारण “गुणना” “पड़ता” है,
बाकी “ध्यान” तो
“अब चला” नहीं जाता,
उस पर ज्यादा रहता है.

रोज व्याख्यान में सुनते हैं.

 

१. सत्य बोलो – कितने बोलते हैं?
२. धंधे में ईमानदारी रखो – कितने रखते हैं?
३. माता-पिता की सेवा करो – कितने कर पाते हैं?
४. अहिंसा का पालन करो – कितने जन जब संभव हो तो रात्रि भोजन नहीं करते?
५. चोरी मत करो – टैक्स की चोरी कितने जन नहीं करते?
६. क्रोध मत करो – इस बारे में कुछ बोलने की जरूरत है!
७. अहंकार मत करो – फिर भी “नाम” के लिए “दान” देते हैं!
८. आडम्बर मत करो – फिर तो जीने का मजा ही क्या है!
९. लोभ मत करो – नफा ज्यादा कौन नहीं चाहता?
१०. परिग्रह मत करो – पैसा नहीं होगा तो लोग जीने ही नहीं देंगे!
११. द्वेष मत करो – ये सिर्फ कहने की बात है!
१२. चुगली मत करो – इसका आनंद ही कुछ और है!

 

हकीकत तो ये है कि ये बातें तो 12 साल  का बच्चा भी

बिना व्याख्यान सुने जानता है.

जब कुछ “प्राप्त” करना ही नहीं है,
तो धर्म स्थल में जाकर “धर्मी” होने का “ढोंग” क्यों करते हो?

 ये सही है कि बच्चा जिस दिन स्कूल जाने लगता है,
उसे “अनपढ़” नहीं कहा जाता
भले ही उसे अभी पढ़ना नहीं आया.

इसी प्रकार धर्मस्थल पर जाने वाले को

“अधर्मी” नहीं कहा जा सकता

भले भी वो वास्तव में “धर्मी” ना हो!

 

“धर्म” स्थान पर जाकर
“आत्मा” नाम की चिड़िया क्या होती है
ये भी समझ में नहीं आया.

और तीर्थंकर और आचार्य कह कह कर थक गए
कि ये मनुष्य जन्म दुर्लभ है.

नीच लिखी आपकी प्रोब्लेम्स दूसरा कैसे जाने:

1. सामायिक में चित्त नहीं लगता,
(सामायिक “लेते” ही मानो सारे “लेनदार” आ जाते हों)

2. मंदिर में पूजा करने का समय नहीं मिलता
(पहले भी नहीं मिला था)

 

3. सूत्र तो समझ ही  नहीं आते
(पहले चेष्टा ही कब की थी) ,

4. पुस्तक अब पढ़ी नहीं जाती
(मानो पहले खूब पढ़ी थी),

आपको को तो लगता है :

65-70  वर्ष की  उम्र में  “देश/गाँव” में

“अच्छा  मकान” बनाना है

मानो “रहना” इस “धरती” पर अब ही आया है

जब “जाने” का समय आया है.

फोटो :

सुलतान की सल्तनत भी
उसे मरने से नहीं बचा सकती.

 

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