जहां “सर्जरी” करके इलाज संभव था
वहां नया “सर्जन”
यानि नए नए पंथ खड़े करके
गुरुओं ने जैन श्रावकों को बहुत भ्रमित किया है.
1 एक तिथि मानें या दो तिथि,
2 तीन थुई मानें या चार थुई,
3. पीली चादर प्रयोग में ली जाए या सफ़ेद चादर,
4. मलिन वस्त्र पहनने की मान्यता वाले साधू सही हैं या
झगारा मारने वाले बहुत ही उज्जवल वस्त्र पहनने वाले साधू,
5. लम्बी या चौड़ी मुखवस्त्रिका मुख पर बांधना
या मुहपत्ति हाथ में रखने का नियम होते हुवे भी
बोलते समय उसका जरा भी उपयोग ना करना,
6. हज़ारों की संख्या में सुनने वाले श्रावक हों फिर भी माइक का प्रयोग ना करना
और
दूसरी और मुख पर कायम मुहपट्टी बांधकर भी माइक पर बोलना,
7. चौथ की संवत्सरी करें या पंचमी की,
8. अधिष्ठायक देवों को मानें या जरा भी ना मानें,
9. जिन मंदिर की पूजा, अर्चना की जाए
या आशातना या “समकित” के नाम पर जैन मंदिर जाया ही ना जाए,
भले भी श्रावक जैन मंदिर छोड़कर दूसरे धर्म के मंदिर जाएँ और “सम्प्रदायवादियों” को पता होते हुवे भी उन्हें स्पष्ट रूप में मना ना किया जाता हो,
10. बत्तीस आगम मान्य हों या पैंतालीस आगम,
11. स्त्री मुक्ति मान्य हो या नहीं,
इत्यादि को देखकर
नयी पीढ़ी भ्रमित हो रही है कि वो किसको अपनाये.
आज भगवान महावीर के गौतमस्वामी को कहे गए वचन याद आते हैं:
हे गौतम! आत्मकल्याण अभी ही कर लो क्योंकि आने वाले समय में अलग अलग सम्प्रदाय होने के कारण ये जानना भी मुश्किल होगा कि सच्चा जैन-धर्म कैसे अपनाया जाए.
नयी पीढ़ी को समझाने के लिए ठोस कारण चाहिए.
वरना वो संपूर्ण रूप से जैन धर्म से विमुख हो जायेगी.
उच्च अभ्यास के लिए अपने शहर से बाहर जाने वाली
नयी पीढ़ी तो इसे पोंगा पंथी मानने लगी है.
दिगंबर सम्प्रदाय की स्थिति तो और विचित्र है :
कहाँ उनके गुरुओं की ध्यान और चारित्र की उच्च कोटि की साधना
और कहाँ उनके अनुयायियों द्वारा मांसाहार का प्रयोग!
(याद करें राष्ट्र संत तरुणसागर के वो शब्द – “आने वाले समय में दो प्रकार के जैनी होंगे : एक शाकाहारी और दूसरे माँसाहारी – यानि कुछ तो ऐसा प्रचलन में है जिसके कारण उन्होंने ऐसा कहा).
बड़ा ही हास्यास्पद किस्सा तो तब लगता है जब दो तिथि वाले एक अष्टमी को अष्टमी ना मानकर, दूसरी अष्टमी को मान्यता देते हैं. अरे! आठम तो आठम है, पहली हो या दूसरी! यदि उनके ही पंथ में “धर्म” ज्यादा होता हो, तो दोनों अष्टमी को मानो और ज्यादा लाभ लो. ये कोई ऐसा ग्रन्थ जिसमें ये लिखा हो कि जब दो अष्टमी हो तो एक को मानो और दूसरी अष्टमी को धर्म क्रिया के लिया उतना महत्त्व ना दो!
क्या तीन या चार थुई वाले कहा सकेंगे कि हमारे श्रावक ही मोक्ष जा सकेंगे और दूसरे नहीं.
जब “मास तुष्, मास रुष ” का जप करने वाला, “पण-दग” का जप करने वाला मोक्ष जा सकता है तो फिर ये छोटी छोटी भ्रांतियां बड़े बड़े स्वरुप में फैलाकर जैनियों को क्यों भरमाया जाता है?
क्या इसे धर्म की प्रभावना करना कहते हैं?
श्री संघ को इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि “अनेकांत” की बात करने वाले अपने अपने “मत” को ही “श्रेष्ठ” बताने से चूकने वाले नहीं हैं.
प्रश्न:
तो फिर क्या किया जाए?
उत्तर:
सभी संप्रदाय के श्रावक आपस में मिलकर बारी बारी से अलग अलग सम्प्रदाय के उपाश्रय/स्थानक पर सामायिक करें, इतना सरल उपाय है इन सब भ्रांतियों को मिटाने का और एकजुट होने का.