जैन धर्म में “तापसी” के “तप” को
बहुत “हल्का” बताया गया है
क्योंकि उसमें “अज्ञानता” है,
सिर्फ तप से तप रहा है.
( ऐसे तप से उसमें भयंकर क्रोध प्रकट होता है
और “अड़ियलपन” आता है,
“लब्धि” भी मिलती है इसमें ना नहीं है
परन्तु क्रोधी और अड़ियल की लब्धि भी किस काम की)?
ऐसी “तप क्रिया” से
“आत्मा” को कोई “उद्धार” नहीं होता.
इसी प्रकार “जड़ता से की जाने वाली क्रिया” से भी
“ज्ञान” प्रकट नहीं होता.
महज “कठोरता” से की जाने वाली “क्रिया”
दूसरों के लिए “अनुमोदनीय” होती है
पर “आनंद” देती ही है, इसमें “शंका” है.
जैन धर्म में पग-पग पर “श्रावक”
गुरु से “धर्म-क्रिया” के लिए आज्ञा लेता है.
ताकि “गुरु” उस पर “ध्यान” रख सके
कि सब कुछ “ठिकाने” से कर रहा है ना नहीं !
पर गुरु ही “जाग्रत” नहीं हो तो?
“मति-ज्ञान” का ही “उपयोग” ना करे तो?
“कुछ अघटित” होने के बाद ही “निर्णय” ले तो?
सार:
जिस स्कूल का “बोर्ड” ही बराबर ना लगा हो,
उस स्कूल में बच्चे का “एडमिशन” करवाएंगे?
बहुत गूढ़ बात है.
“अंधभक्ति” छोड़ कर चिंतन करें.
यद्यपि “उत्कृष्ट जाप और भक्ति” तो
“आँखें” बंद करने पर ही होती है.
पर “भक्ति” में आँखें बंद करने का अर्थ है
“अंतर्मन” में प्रवेश करना.
फिर “आत्म-चक्षु” का खुलना !
विशेष:
“आनंद” पाने के लिए “ठूंठ त्याग” की नहीं
“अज्ञान” और ममत्व” के त्याग की जरूरत है.
“दुनिया” को दिखाने के लिए “त्याग” तो
“शरीर” के माध्यम से करना पड़ता है ना !
परन्तु “शरीर” भी “हमारा” नहीं है
तो फिर “संसार” को “त्यागने” की बात कैसे हो?
जिसने “आत्मा” को जान लिया
फिर भला वो किसको “पाने” की बात करेगा
और किसको “छोड़ने” की !