जैन शास्त्रों में ५ ज्ञान बताये गए हैं:
१. मति ज्ञान
२. श्रुत ज्ञान
३. अवधि ज्ञान
४. मन: पर्यव ज्ञान
५. केवल ज्ञान
वर्तमान में पहले दो ज्ञान विद्यमान हैं.
१. बुद्धि
और
२. सुनाना, पढ़ाना और लिखाना.
(श्रावकों के लिए सुनना, पढ़ना और लिखना)
इस दुःषम काल में भी ये दो ज्ञान उपलब्ध हैं.
सबसे ऊँचा केवलज्ञान हैं.
केवलज्ञानी क्या करता हैं?
ज्ञान का प्रसार!
किसके माध्यम से?
“श्रुत ज्ञान” के माध्यम से!
इसका मतलब यदि “केवली”
श्रुत ज्ञान का उपयोग ना करे
तो लोक कल्याण नहीं हो सकता
क्योंकि उनके ज्ञान को सामान्य लोग
जान ही नहीं पाते.
ज्ञान वही सबसे उपयोगी हैं
जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के काम आये.
पहले “श्रुत ज्ञान” ही माध्यम था – ज्ञान प्राप्त करने के लिए.
(आजकल पुस्तकें इसलिए छापी जाती हैं क्योंकि
खुद गुरु की इतनी स्मृति नहीं है की वो पूरे “विषय” को
“क्रम” से पढ़ा सके).
इसीलिए पुस्तकों और ग्रंथों की सहायता ली जाती है.
वर्तमान में भी जो साधू-साध्वी और श्रावक-श्राविकाएं
“धर्म” सम्बंधित जानकारी लेते हैं,
वो “लिखकर” नहीं लेते,
प्रवचन से ही लेते हैं
या उन्हें पंडित पढ़ाते हैं.
आजकल उनका “टेस्ट” भी “लिखाकर” लिया जाने लगा है.
ये सब “स्मृति” की जांच करने के लिए है.
वास्तविक “ज्ञान प्राप्ति” की जांच
इस प्रकार के “written test” से नहीं होती.
जैन सूत्र पहले कभी “लिखे” नहीं गए
क्योंकि “लिखने” से सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है.
धर्म के कार्य में हिंसा!
ये किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं होता.
(जबकि लिपि का आविष्कार तो भगवान ऋषभ देव ने ही कर दिया था.
फिर भी जैन सूत्र कभी लिखे नहीं गए).
इसलिए “गुरु” सूत्रों को अपनी “स्मृति” में भी रखता था
और “गुरु-परंपरा” से ये आगे से आगे चलता रहा.
“मंत्र-ज्ञान” “श्रुत ज्ञान” का ही स्वरुप है
क्योंकि वो गुरु परंपरा से मिलता रहा है.
फोटो:
२४ तीर्थंकर
(हर तीर्थंकर की पहली देशना का “विषय”
काल और परिस्थिति के अनुसार अलग अलग रहा है)