१० वर्ष लगे

मुझे ये समझने में कि
अरिहंत का बीजाक्षर

“अर्हं”

ही क्यों?

हिंदी कि बारहखड़ी

“अ” से शुरू होकर
“ह” पर पूरी होती है.

र अग्निबीज है.

जो अपनी अनुपस्थिति में

“अर्हं” शब्द को “अहं” बनाता है.

 

इसी  “अहं”  के कारण ही “राग-द्वेष” बढ़ते रहते हैं
और  जीव “दुष्कर्म” करते हुए भी “सुखी” महसूस करता है.

इस अहम्  को जलाने के लिए

“र” अग्निबीज का प्रयोग होता है.

और तो और:

“अर्हं” शब्द को यदि जैनिज़्म से निकाल दिया जाए
तो वो आत्मा  रहित “शरीर” होगा
जिसको (शरीर को) मरने के बाद जला  दिया जाता है.

 

अब चॉइस हमारी है

कि हम अहम् को अग्निबीज  र द्वारा

जलाना पसंद करते हैं कि
या
“र”  का उपयोग ना करके
अहम्  का पोषण करना चाहते हैं.

 

विशेष :

“अर्हं” शब्द के कारण ही जैन दर्शन का स्वतंत्र अस्तित्व है.

यदि इसे हटा दिया जाए,
तो जैन धर्म मात्र  एक “कंकाल” रह जाएगा.

मात्र “गुरुओं” की भक्ति करने वाले
या गुरुओं (आचार्यों) को ही सर्वोपरि मानने वाले

इस सत्य को स्वीकार करें.

 

“अर्हं”  के कारण ही जैन गुरुओं की उपस्थिति  है,
ना कि गुरुओं के कारण “अर्हं” की!
आज कुछ गुरु अपने भक्तों को
पंडाल में  अपना और अपने गुरुओं का फोटो बड़ा
और तीर्थंकरों का फोटो छोटा
(ना दिखने का बराबर)
लगाने की अनुमति दे रहे हैं

जिससे “सामान्य” श्रावक में

अविवेक उत्पन्न हो रहा है
और वो गुरु को ही सर्वोपरि मान रहे हैं.

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