भक्तामर स्तोत्र:
ये स्तोत्र पूरे जैन समुदाय में सर्वमान्य है.
(सिर्फ ४४ गाथा और ४८ गाथा का मतान्तर है).
पूर्व भूमिका :
सर्वप्रथम कल्पना करो कि हम कोठरी में बंद हैं. और
हमें भक्तामर पढ़ने को कहा जाए!
1. क्या ये मन में विश्वास है कि
भक्तामर पढ़ने से कोठरी के ताले अपने आप टूट जाएंगे?
2. यदि नहीं, तो क्या मानतुंग सूरिजी ने जो भक्तामर रचा है,
उसमें से कुछ अक्षर या शब्दों की कमी/हेराफेरी हुई है
जिसके कारण वो प्रभाव आएगा, उसमें शंका है?
3. हम जिस तरह “भक्तामर स्तोत्र” के रोज “घोटे” लगाते हैं,
क्या मानतुंग सूरीजी ने भी उसी तरह “भक्तामर स्तोत्र” के “घोटे” लगाये थे?
ये सारे प्रश्न हमें “जोरदार झटके” देने वाले हैं कि मंत्रगर्भित जैन सूत्रों/स्तोत्रों पर हमारी “श्रद्धा” कैसी है !
अपने आप को पूछो कि कोठरी में बंद होने पर आपका सबसे पहला “चिंतन” क्या होगा.
छूटते ही आप कहेंगे :
“बाहर कैसे निकला जाए!”
और श्री मानतुंगसूरिजी के भाव कहाँ गए?
सीधे भगवान आदिनाथ पर !
कैसा दृश्य है-
(अभी तीन मिनट के लिए सब कुछ भूल कर इसी “भाव” में “डूब” जाओ जो नीचे लिखा है
अन्यथा “भव-सागर” में “डूबना” पड़ सकता है ) :
1. भगवान आदिनाथ के “दोनों चरणों” में देवता भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रहे हैं.
2. पाँव के “नखों” से निकलती हुई “किरणों” से देवताओं के मुकुट में जड़ी “मणियाँ” और भी ज्यादा चमकने लग रही हैं.
3. भगवान के “चरणों” का “स्पर्श” ही सबके पापों का नाश करने वाला हैं.
4. जो भगवान के “चरणों” का आलम्बन लेता है (यहाँ जिन-पूजा का स्पष्ट निर्देश सामने आ रहा हैं), वह भव पार हो जाता है.
5. इस युग में “धर्म” का प्रारभ करने वाले प्रथम तीर्थंकर के दोनों चरणों में “विधिवत” प्रणाम करके “स्तुति” करता हूँ.
प्रश्न :
1. आज तक हममें ये भाव आये कि हम आदिनाथ भगवान के महोत्सव को हर्षोल्लास से मना रहे हैं?
2. कभी आदिनाथ भगवान के जिन मंदिर की प्रतिष्ठा में गए हैं?
यदि नहीं,
तो उस “दृश्य” की “कल्पना” भी कैसे होगी?