सबसे पहले “आदिनाथ भगवान” की चरण-पूजा करें.
जो पूजा ना कर सकें,
तो “आदिनाथ भगवान” के मंदिर के दर्शन करके थोडा “न्हावन” ले आवें.
घर आकर उसे “चांदी” की एक कटोरी में रखें.
फिर ये तीन गाथा आदिनाथ भगवान के फोटो/तस्वीर के सामने पढ़ें :
भक्त्तामर प्रणत मौलि मणि प्रभाणा, मुद्योतकं दलित पाप तमो वितानाम् |
सम्यक् प्रणम्य जिन पाद युगम् युगादा, वालम्बनम् भवजले पततां जनानां ||
आस्ताम् तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति |
दूरे सहस्त्र-किरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ||
उद्भूत भीषण जलोदर भारभुग्ना:, शोच्याम् दशामुपगताश्चुत-जीविताशा: |
त्वत्पादपंकज रजो मृतsदिग्धदेहा, मर्त्या भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरूपा: ||
अब नीचे लिखे “मंत्र” की ३ माला बड़े ही भाव से प्रसन्नतापूर्वक
(ऐसे मानो आप आदिनाथ भगवान के पास बैठे हों) गिनें:
ॐ ह्रीं आदिनाथाय नमः ||
१. पहली माला पीले रंग की हो.
२. दूसरी माला नीले/काले रंग की हो.
३. तीसरी माला “सफ़ेद” रंग की हो.
(यदि तीन रंग की माला ना हो, तो मात्र “स्फटिक” की माला ले लें)
अब उस न्हावन को दिन में तीन बार “रोग” वाले स्थान पर लगा लें.
(आदिनाथ भगवान को याद करते हुए)
पहली बार न्हावन तो जपने के तुरंत बाद लगा लें.
यदि रोगग्रसित व्यक्ति ये विधि ना कर सके तो रोगी के “माता या पिता” ये विधि कर सकते हैं.
विशेष:
यद्यपि सम्पूर्ण भक्तामर स्तोत्र का प्रभाव को जानना “शब्दों” से संभव नहीं है.
फिर भी उपरोक्त ३ गाथाएं विशेषतः रोग निवारण के लिए ही है.
रोग पाप के उदय से ही आते हैं.
और इन तीन गाथाओं का सारांश यही है कि
“आदिनाथ भगवान” के चरण स्पर्श किये हुए
“नह्वन” में “पाप” धोने की “शक्ति” है.
“पाप का धोना” मतलब “रोग निवारण!”
यहाँ ये भी स्पष्ट हो जाता है कि
भक्तामर स्तोत्र के रचयिता श्री मानतुंग सुरीजी ने
“बंदीगृह” में होते हुए भी श्री आदिनाथ भगवान के रूप का
अत्यंत उच्च कोटि के भाव से किया
साथ ही पूजा का स्मरण किया
और “भाव पूजा” एवं “स्मरण”
“मात्र” की सहायता से जिन शासन की प्रभावना की.
(जिन मंदिर के दर्शन और पूजन की महत्ता भी
इससे प्रकट होती है).