सामान्य केवली का केवल ज्ञान भी
संघ के लिए सामान्य ही रहता है!
——————————————-
अरिहंत के जो 12 गुण होते हैं
वो सामान्य केवली में नहीं होते.
अधिकतर में ये भ्रम है कि
केवल ज्ञान हो जाने के बाद जीव अरिहंत हो जाता है.
यदि ऐसा होता तो चत्तारि मंगलं के
5 वें पद की अलग से जरूरत ही नहीं पड़ती.
लोगस्स में ये बात एकदम स्पष्ट है.
उसमें अरिहंत के रूप में सिर्फ
24 तीर्थंकरों का ही नाम है और उन्हीं की स्तुति है.
सामान्य केवली का देवताओं द्वारा
एक बार भी समवसरण नहीं रचा जाता है !
क्योंकि वो सामान्य हैं!
जगतारक नहीं है!
साधना करते समय सिर्फ स्वयं के कल्याण तक ही सोच पाए और वैसी ही उनकी भावना भी रही.
तब प्रकृति भी वैसा ही साथ देती है!
ज्ञान हो जाने पर भी
उसके पास भाषा नहीं होती,
यदि है भी तो अरिहंत जैसी वाणी नहीं होती.
स्वयं की जैसी सोच होती है
वो केवल ज्ञान होने के बाद भी वैसी ही परिणाम देने वाली बनती है.
ये बात हम व्यवहार में भी अपवाद छोड़कर
अधिकतर यही देखते हैं.
अथाह पैसा हो, खूब समृद्ध हो,
तो भी व्यक्ति समाज के लिए कुछ नहीं करता!
जो कुछ करता भी है, वो भी अपने नाम के लिए!
अब ऐसा व्यक्ति “सामान्य” की श्रेणी में हुआ कि नहीं!
समाज की द्रष्टि से उसे “गूंगा समृद्ध” कहा जा सकता है.
महावीर मेरा पंथ