श्री उवसग्गहरं महाप्रभाविक स्तोत्र – अर्थ एवं प्रभाव : भाग -1

|| श्री उवसग्गहरं महाप्रभाविक स्तोत्र – अर्थ एवं प्रभाव : भाग -1 ||

उवसग्गहरं पासं पासं वंदामि कम्म घण मुक्कं |
विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्लाण आवासं || १ ||

विसहर फुलिंग मन्तं, कण्ठे धारेई जो सया मणुओ
तस्स गह रोग मारी दुट्ठजरा जन्ति उवसामं || २ ||

चिट्ठउ दूर मंतो, तुज्झ  पणामो  वि बहुफलो होइ
नरतिरि ए सुवि जीवा, पावंति न दुक्ख दोगच्चं || ३ ||

तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि कप्प पायवब्भहिए |
पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरा मरं ठाणम् || ४ ||

इअ संथुओ  महायस, भत्तिभर निब्भरेण हियएण |
ता देव! दिज्ज बोहिं, भावे भावे पास जिण चंद || ५ ||

 

१ गाथा :

“उवसग्गहरं” शब्द बोलने के साथ
मन में ऐसा दृढ़ विश्वास रखें कि उपसर्ग और बाधाएं दूर हो रही हैं.

“सग्ग” पर जोर देकर बोलें.

“हरं” फ़ास्ट बोलें.

कम्म घण मुक्कं – इन तीनों शब्दों को अलग अलग एकदम साफ़ शब्दों में बोलें.

“विसहर” शब्द
विष के प्रभाव को नष्ट करता है.

ये विष आजकल सांप वगैरह के काटने से नहीं
(क्योंकि ऐसी घटनाएँ लगभग गाँवों में ही होती है,
जिस काल में ये रचा गया था, उस समय बहुत होती थीं).

 

आजकल खाने की बहुत सी चीजों में विष मिला हुआ होता है.
जिससे “उलटी” (वोमिटिंग) कइयों को होती है.
बार बार “उलटी” होने पर और
डॉक्टर से दवा लेने के बाद भी इसका निवारण  नहीं हो पाता.

फिर कोई “ज्ञानी” हवा में तीर छोड़ता है कि
किसी ने “कुछ” कर दिया है.

इस बात पर तुरंत “विश्वास” बैठ जाता है.
और परिवार वाले “तीर्थ” स्थानों में नहीं जाकर
“चमत्कारी बाबा” के पास पहुँच जाते हैं.

 

“चमत्कारी बाबा” कहेगा:

“एक सफ़ेद वस्त्र पहने आदमी” ने किया है
या “लाल साडी” पहनी “स्त्री” ने किया है.

संसार में दो प्रकार के ही लोग होते हैं : पुरुष या स्त्री!

(हिंजड़े का नाम वो कभी नहीं लेता,
क्योंकि मैं ऐसा देखता हूँ की जैनी भी उनका “आशीर्वाद”
लेने में अपना अहोभाग्य समझते हैं –

विशेषकर बच्चों को उनका “आशीर्वाद” दिलाया जाता है

क्योंकि उनको पैसा जो दिया है).

जरा विचार करें: हिंजडा हमसे श्रेष्ठ है क्या?

 

“चमत्कारी बाबा” पूछने पर किसी का नाम कभी नहीं बताता.
ज्यादा से ज्यादा यही कहेगा:

“घर” में से ही कोई है!

हमारा उस पर इतना “अंध-विश्वास” जम  जाता है कि
हम “अपनों” पर ही “अविश्वास” करने लगते हैं.

जबकि ये “साधारण” (आपके लिए बहुत बड़ी) समस्या
मात्र “उवसग्गहरं” की
पहली गाथा “भक्ति-पूर्वक” पढ़ने से ही
दूर हो जाती है.

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