श्री उवसग्गहरं महाप्रभाविक स्तोत्र
तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि कप्प पायवब्भहिए |
पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरा मरं ठाणम् || ४ ||
श्री पार्श्वनाथ भगवान का नाम “चिंतामणि रत्न” के समान ही नहीं
बल्कि कल्पतरु जैसा है…..
और तो और कल्पतरु जैसा ही नहीं….उससे भी बहुत अधिक है!
कैसे?
“चिंतामणि रत्न” के समान का अर्थ है “जो मन में इच्छा हो, वो प्राप्त होता है”
(किसी को कहने की आवश्यकता नहीं है)
यहाँ पर ज्यादातर लोग सहमत नहीं होंगे क्योंकि
उनका अनुभव “उवसग्गहरं” गुणने के बाद भी इतना अच्छा नहीं रहा है.
पर जैसा कि पहली पोस्ट में कहा कि
ये मात्र “उपसर्ग” हरने वाला स्तोत्र ही नहीं है
जैसा कि आज तक समझा जाता रहा है.
यदि आपने ऐसा समझा है
तो आपने ही इस स्तोत्र की “लिमिटेशन” तय कर रखी है,
इसमें “मंत्र” का कोई दोष नहीं है.
“मंत्र” होता है “मन” से……
“जितना बड़ा भाव, उतना बड़ा रिजल्ट.”
अब आगे देखिये, श्री भद्रबाहु स्वामीजी के श्री पार्श्वनाथ भगवान के प्रति भाव!
मूल बात संघ पर आये उपद्रव की थी.
वो तो उन्होंने मात्र पहली गाथा से ही दूर कर दिया
और उससे भी विशेष पहली गाथा के पहले ही शब्द
“उवसग्गहरं” से!
आप “उवसग्ग” शब्द ऐसे बोले मानो आप उसपर “हथोड़ा” चला रहे हों और “हरं” शब्द बोलने के साथ ऐसा “फील” करें मानो वो उपसर्ग “चकनाचूर” हो गया हो. परन्तु “पासं पासं वंदामि “ शब्द आते ही आपका सर एकदम “झुक” जाना चाहिए. कुछ महीनों में आपके मन में ये विश्वास आयेगा कि आपके शब्दों में ऐसा करने का “दम” है, उसी दिन से आप के ऊपर कोई बाधा नहीं आ पाएगी.
जब तक आप ऐसा ना कर पाये, तब तक उसे “ट्रेनिंग पीरियड” समझें. मंत्र जब तक “सिद्ध” नहीं होता है, तब तक वो “व्यक्ति” ट्रेनिंग में होता है.