पहले 1-5 भाग बार बार अवश्य पढ़ें
जब तक सारी बातें “चित्त” में ना उतरें.
श्री उवसग्गहरं महाप्रभाविक स्तोत्र:
तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि कप्प पायवब्भहिए |
पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरा मरं ठाणम् || ४ ||
“कल्पतरु” से भी “ज्यादा” क्या है?
पहली बात “कल्पवृक्ष” से “मांगना” पड़ता है.
“एक जैनी और उसे माँगना पड़े” – “न भूतो न भविष्यति”
“सूक्ष्म” रूप से देखा जाए तो “मोक्ष” भी माँगा नहीं जा सकता,
वो तो “स्वतः” ही प्राप्त होता है,
हां, उवसग्गहरं गुनते वक्त शरण लेने कि जरूरत है तो सिर्फ पार्श्वनाथ भगवान की !
उनके “आदेय नाम कर्म” का “फायदा” हमें मिलता है.
कैसे?
उनकी शरण लेकर कोई कार्य किया जाए और मानो कि वो काम ना हो तो उनके “नाम कर्म” को “बट्टा” लग सकता है (सिर्फ समझने के लिए ये लिखा है) जबकि उनका “नाम कर्म” ऐसा है कि वो तो “फैलता” ही जा रहा है. जहाँ पर भी मंदिर में दो-तीन मूर्तियां है, वहां “पार्श्वनाथ” भगवान की मूर्ति अवश्य मिलती है.
अब रही जरूरत सिर्फ और सिर्फ पार्श्वनाथ भगवान की शरण लेने की.
विशेष:
1. लगभग हर मंदिर में पार्श्वनाथ भगवान की भव्यातिभव्य प्रतिमाजी का होना ये सिद्ध करता है कि ये उनके “नाम कर्म” का अचिन्त्य प्रभाव है. वर्तमान में तो एक एक मंदिर में पार्श्वनाथ भगवान की 108 प्रतिमा “दर्शन” करने को मिल जायेगी.
अब भी कोई जैन मंदिर जाने में ना करे तो ये उनकी “समझ” है.
2. ज्योतिष के अनुसार जिनको वर्तमान में “केतु” की महादशा हो, उन्हें पार्श्वनाथ भगवान की भक्ति करने से और भी ज्यादा फायदा मिलता है. (केतु जन्मकुंडली में चाहे अच्छा हो या ख़राब). ये बात ख़ास याद रखने जैसे है कि कोई भी पंडित आपको “कुछ खर्च” किये बगैर कुछ रास्ता नहीं दिखाता. इसीलिए जैन धर्म में व्यवस्था पहले से है कि जो कुछ करना है वो जिन मंदिर में करो. “पुण्य” भी कमाओ और “दुष्ट कर्मों” से छुटकारा भी पाओ.
(कृपया ख़ास ध्यान रखे : jainmantras.com का मूल उद्देश्य ये सब बताना नहीं है, इसका मूल उद्देश्य मात्र और मात्र लोग “जिन धर्म” से जुड़े रहे….चाहे दिन सुख के हों या दुःख के).