धर्म और धर्मान्धता
ये कोई समीकरण नहीं है
दोनों का कोई मेल नहीं है
फिर भी एक ही शब्द से बना से दूसरा शब्द !
दोनों पाये जाते हैं धर्मस्थल पर !
इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है !
धर्म करने के स्थान पर ही अधर्म का साम्राज्य !
“सिर्फ अपने को भी बड़ा बताने की छोटी सोच !
जहाँ जहाँ ये देखो तो समझ लें कि वहां “धर्म” का “आभास” मात्र है,
“शुद्ध” धर्म नहीं है.
“धर्म” प्रेम की भाषा सिखाता है.
दूसरे से प्रेम करने वाला कभी अपने को बड़ा कहेगा ही नहीं !
और दूसरे से प्रेम पाने वाला कभी दूसरे को छोटा कहेगा नहीं.
प्रेम में ही “अहिंसा” प्रकट होती है, ये विश्व प्रेम की बात है.
प्रेम में ही “सत्य” छिपा है, “झूठा प्रेम” दिखाने वाला “सच्चा” होता ही नहीं है.
प्रेम में ही “अचौर्य” प्रकट है, जिससे प्रेम हो उसकी वस्तु कोई भला कैसे चुरा सकता है?
प्रेम में ही “ब्रह्मचर्य” है, वो किसी से समाज में अवांछनीय सम्बन्ध कैसे बना सकता है?
प्रेम में ही “अपरिग्रह” छिपा है, प्रेम करने वाला बाँट बाँट कर खाता है.
बस
“प्रेम” का दरवाजा खोलो,
और “प्रेम” की होली खेलो