“धर्म ध्यान” में “मति ज्ञान” और “श्रुत ज्ञान” दोनों का उपयोग होता है.
प्रतिक्रमण और सामयिक में बार बार “नवकार और लोगस्स” का “ध्यान” करना “धर्म” ध्यान है.
जिस समय ध्यान “आत्मा” पर होता है,
तो एकदम समझने वाली बात है कि वो “आत्मा” का ही उद्धार करेगा.
“ध्यान” में
पांचों इन्द्रियों का कोई उपयोग नहीं होता.
आँखों से कुछ देखना नहीं होता.
कानों से कुछ सुनना नहीं होता.
नाक से कुछ सूंघना नहीं होता.
जीभ से कुछ स्वाद लेना नहीं होता.
त्वचा से कुछ स्पर्श करना नहीं होता.
मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान- इनका “ध्यान” से कोई सम्बन्ध नहीं है !
बुद्धि लगाकर “आत्म-ज्ञान” नहीं होता.
“शास्त्र” पढ़कर “आत्म-ज्ञान” नहीं होता.
बुद्धि और शास्त्र से तो “आत्म-ज्ञान” को “थोड़ा समझा” जा सकता है,
उससे “आत्म-ज्ञान” प्राप्त नहीं होता.
“आत्म-ज्ञान” “ध्यान” से ही होता है.
अब जब पाँचों इन्द्रियों के बिना ध्यान होता है
“श्वास” के साथ
यानि अभी सम्बन्ध है आत्मा और शरीर का
तो “श्वास” के कारण !
इस प्रकार के ध्यान में मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान दोनों का ही प्रयोग नहीं होता.
उत्कृष्ट ध्यान “आत्मा” को “अवधि ज्ञान” के पास ले जाता है.
यही कारण है कि योगी और साधक “ध्यान” में वो देख लेते हैं जो खुली आँखों से नहीं दिखता.
धर्म ध्यान के बाद चौथा है : शुक्ल ध्यान
शुक्ल ध्यान सीधे “आत्मा” को विशुद्ध बनाने की ओर ले चलता है.जो उसे मोक्ष दिलाता है.
विशेष: जैन धर्म में मोक्ष प्राप्त करने की अनेक विधियां हैं. बस जब भी धर्म साधना करें, तब अपनी आत्मा को लक्ष्य में रखें, भले ही वर्षों तक “आत्मा” का भास ना हो. अनंत भवों के जन्म के संस्कार एक दो वर्ष तो क्या, इस जीवन के अंतिम समय तक भी छूट जाए, तो हमारी जीत है.