जैन धर्म का सूक्ष्म विश्लेषण:
अहं और अर्हं
में मात्र
“र् ” का अंतर है.
“र” अग्निबीज है
जो अहं को भस्म कर देता है.
“ॐ अर्हं नमः”
( मात्र “ॐ अर्हं” बोलना अपने आप में “अधूरा” है
क्योकि इससे तीर्थंकर को नमस्कार नहीं होता ).
ये मंत्र जगत सम्राट
श्री शांतिसूरीश्वरजी (आबुवाले)
ने दिया है.
१० वर्षे की साधना और चिंतन के बाद मुझे ज्ञान हुआ कि उन्होंने इसी मंत्र का जाप करने का क्यों कहा. इसका वर्णन मैंने अन्य पोस्ट में किया है.