“उवसग्गहरं” स्तोत्र
कुछ लोग रोज इसे 27 बार गिनते हैं.
फिर भी “समस्याओं” का
वो समाधान नहीं मिलता जो मिलना चाहिए.
इसका मतलब “मूल” में ही कहीं “भूल” है.
1. रोज 27 उवसग्गहरं गिनने वाले (“गुणनेवाले” नहीँ )
ज्यादातर श्रावक मात्र “संख्या” पूरी करते हैं.
2. उच्चारण में अनेक अशुद्धियाँ भी एक बड़ा कारण है.
3. वर्षों से स्तोत्र पूरा पढ़ते हैं पर स्तोत्र पढ़ते समय
कभी पार्श्वनाथ भगवान की छवि चित्त में नहीं आती.
इसे ऐसा ही समझें कि “बच्चा रटकर”
परीक्षा में “मार्क्स” (संख्या पूरी करने जैसा) हर साल ला रहा है,
पर उसे पढ़ने में “मजा” कुछ नहीं आ रहा.
ज्यादा मार्क्स डर, शर्म और हीन भावना ना आये, इसलिए ला रहा है.
तो फिर “प्राप्त” क्या हुआ?
कुछ नहीं. बस एक “संतोष” है कि अच्छे “मार्क्स” मिल गए.
ज्यादातर मंत्र जप करनेवालों की भी यही स्थिति है.
अधिकतर उपसर्ग (दूसरे के कारण उत्पन्न बाधाये )
पूर्व जन्म के कर्म/बैर के कारण आते हैं.
उपसर्ग उदय में आते समय बड़ी “फ़ोर्स” से आता है.
उस समय बुद्धि काम नहीं करती.
कुछ महत्त्वपूर्ण बातें
जिससे निर्णय होगा कि वर्तमान परिस्थिति उपसर्ग है
या कुछ और:
१. अचानक से तबियत का बहुत ज्यादा बिगड़ना-उपसर्ग है.
(उम्र ज्यादा होने के कारण सामान्य रूप से मेडिकल टेस्ट करवाने गए
और रिपोर्ट में कैंसर आया तो वो उपसर्ग नहीं है-वो अशुभ कर्म का उदय है
-ज्यादा उम्र के कारण मृत्यु नज़दीक ही होती है).
२. अचानक से बहुत बड़ा नुक्सान होना, जिसकी कोई आशंका नहीं थी.
(ये उपसर्ग है)
३. सब कुछ अच्छा था, पर धीरे धीरे सब बिगड़ रहा हो.
(जैसे धंधे में उन्नति नहीं होकर, नफे का दिन-ब-दिन कम होना-
ये उपसर्ग नहीं है- ये “पुण्य क्षय” होने के लक्षण हैं).
“उवसग्गहरं” स्तोत्र 27 बार गिनने के पीछे क्या रहस्य है?
एक महीने में 27 नक्षत्र होते हैं.
पूरा महीना अच्छा जाए,
इसके लिए 27 उवसग्गहरं “गुणने” की परंपरा है.
(गुणना किसे कहते हैं, इसके लिए मेरी आने वाली पोस्ट पढ़ें)
क्या दिन में मात्र 3 बार गुणने से ज्यादा लाभ मिल सकता है?
उत्तर है : हाँ
सिर्फ 3 उवसग्गहरं ही रोज गिनें,
पर
1. बड़ी श्रद्धा के साथ,
2. शान्ति से,
3. पार्श्वनाथ भगवान के मंदिर में,
या
घर में पार्श्वनाथ भगवान की फोटो के सामने बड़ी प्रसन्नता से !
भगवान की श्रेष्ठ पूजा मंदिर में ही होती है –
क्योंकि वहां वातावरण शुद्ध होता है-
चन्दन, केसर, बराश (कपूर), दूध, घी, सुगन्धित अगरबत्ती, दीपक
इत्यादि के कारण अधिष्ठायक देव आकर्षित होते हैं.
(और शुभ भी – जरा प्रतिमाजी के पीछे मंदिर की दीवारों को गौर से देखें….
आपको सोने चांदी का काम किया हुआ मिलेगा).
जिस प्रकार व्यक्ति अपना धंधा स्वयं करता है,
उसी प्रकार पूजन अर्चन भी स्वयं करना चाहिए.
(पंडित से नहीं)
तभी विशेष लाभ मिलता है.
इस पोस्ट को ३-४ बार पढ़ें तो और अच्छी तरह समझ में आएगा कि
उवसग्गहरं महास्तोत्र का रहस्य क्या है.
पढ़ते रहें :
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फोटो (सुरेन्द्र कुमार राखेचा द्वारा):
श्री सहस्त्रफ़णा पार्श्वनाथ भगवान,
तारंगा तलेटी, गुजरात