प्रश्न 11 :
नवकार में “नौ पद” है जबकि वास्तव में “परमेष्ठी” तो पांच ही हैं
जबकि “नव-पद” में तो “पांच-परमेष्ठी” के अलावा चार और पद आते हैं
यथा ६. दर्शन, ७. ज्ञान, ८ चारित्र और ९ तप .
उत्तर:
जैन धर्म पूरा “लॉजिकल” है.
सारांश में १-६. दर्शन, २-७. ज्ञान, ३-८ चारित्र और ४-९ तप – ये चारों गुण पांच परमेष्ठी में हैं.
इसलिए परम इष्ट तो पांच ही है.
“जीव” “गुणों” के कारण ही पूजा जाता है.
पांच परमेष्ठी के इन गुणों को नवपद में समाया गया है.
जिससे हर श्रावक को पता पड़े कि ये क्यों पूजनीय हैं.
सबसे “इंटरेस्टिंग” बात तो ये है कि हर श्रावक से भी अपेक्षा यही है कि वो इन चारों गुणों को अपनाये.
मतलब “श्रावक” भी इस “योग्य” समझा गया है कि वो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को अपनाये.
उत्तरोत्तर एक दिन वो स्वयं भी इन पांच परमेष्ठी में अपना “स्थान” बना ले और पूजनीय हो जाए.
है किसी और धर्म में ये बात कि आप भी पूजनीय हो जाओ!
प्रश्न 12 :
एक सामान्य “श्रावक” और “पूजनीय?”- ये बात गले नहीं उतरती.
उत्तर:
यद्यपि “पूजनीय” होना जीवन का लक्ष्य नहीं है
पर फिर भी व्यक्ति अपने गुणों के कारण पूजे जाते हैं.
एक साधू दीक्षा इसलिए नहीं लेता कि वो पूजा जाए,
परन्तु पूरे जीवन “धर्म-मार्ग” पर चलने की प्रतिज्ञा लेने के कारण
दीक्षा लेते ही पूजनीय हो जाता है.
जबकि दीक्षा लेने से पहले तो वो सामान्य श्रावक ही था!
प्रश्न 13 :
दर्शन, ज्ञान, चारित्र(जैसे पौषध) और तप को अपनाते हुए क्या एक “श्रावक” “पूजनीय” हो सकता है?
उत्तर:
…………………………
(उत्तर आपसे अपेक्षित है – जरा चिंतन करो).
विशेष:
यदि आपको दृढ विश्वास हो गया है कि
पांच परमेष्ठी से मेरा “घनिष्ठ सम्बन्ध” है,
तो आपका “पुण्य” अभी से ही उदय में आ गया है.
ये बात जानकर मन में प्रसन्नता आई होगी कि
इतना करने मात्र से हमारे पुण्य का उदय हो गया है.
परन्तु कईओं को ये “भय” रहता है कि “ज्यादा” सम्बन्ध बना लेने पर
“सुखमय” संसार छूट जाएगा और “दीक्षा” लेनी “पड़ेगी.”