जिस दिन से बच्चा स्कूल में जाने लगता है,
तो भले ही उसने अभी पढ़ना सीखा नहीं हो,
तो भी उसे “अनपढ़” नहीं कहा जाता.
कारण?
उसे स्कूल भेजते ही पढ़ने के लिए हैं.
और ये निश्चित है कि स्कूल जाकर वो पढ़ना सीखेगा ही!
इसी प्रकार जब तीर्थंकरों की शरण में आकर
कोई व्यक्ति साधू या श्रावक बनता है,
इसका मतलब वो गुणों को धारण करने की
पूरी तैयारी दिखाता है.
जैन धर्म में पूजा गुणी की ही की जाती है,
मात्र उम्र में बड़े होने वाले की नहीं.
१० वर्ष का बच्चा यदि दीक्षा पहले लेता है
और ५० वर्ष का बाद में,
तो ५० वर्ष वाला ही
१० वर्ष के बच्चे को प्रणाम करेगा.
क्योंकि उसने गुण को पहले धारण किया है.
अब बात है :
तीर्थंकर संघ को क्यों नमस्कार करें?
इसे समझने के लिए इस बात का उत्तर दीजिये :
स्कूल बड़ी होती है या गुरु?
यूनिवर्सिटी बड़ी होती है या लेक्चरर?
बिना सिस्टम (स्कूल) के अकेला गुरु क्या करेगा?
जहाँ बच्चे ही ना हों, तो पढ़ायेगा किसको?
अपने ज्ञान को बांटेगा कैसे?
इसी प्रकार तीर्थंकर जो लोक कल्याण के लिए
अपने पूर्व जन्म में साधना करते हैं,
और लोक (लोग) ही ना हों, तो कल्याण कैसे करेंगे!
उनके जीवन का उद्धेश्य पूरा कैसे होगा?
सब बातों का सार ये है कि स्वयं तीर्थंकर भी
“जिन शासन” के एक भाग हैं.
संस्था को बनाने वाले कभी बड़े नहीं होते,
संस्था ही बड़ी होती है.
हर पोस्ट को अच्छी तरह पढ़ें, सरसरी निगाहों से नहीं.
अन्यथा “शंकाएं” पैदा हो सकती हैं.
जैन धर्म एवं मन्त्रों के बारे में जानने के लिए पढ़ते रहें :
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फोटो :
श्री जीरावला पार्श्वनाथ