ये कहा जाता है कि अब समय “बदल” गया है.
“समय” तो आज से नहीं,
“हर समय” बदलता है.
हर “क्षण” बदलता है.
हम बदलते हैं
हमारी “सोच” के कारण !
यदि “समय” के साथ सब कुछ बदलता,
तो हमारा “धर्म” भी बदल जाना चाहिए था.
हमारे “धर्म सूत्र” भी बदल जाने चाहिए थे.
हमारे “जप-तप-ध्यान” की विधि भी बदल जानी चाहिए थी.
परन्तु जैन धर्म की “विधि” तो नहीं बदली
हाँ, बहुत से जैन साधुओं ने “बौद्ध” धर्म की
“विपश्यना” को जरूर स्वीकार कर लिया है.
ये कहा जा सकता है कि “वो” बदल गए हैं.
“चातुर्मास” के “अलावा” शेष काल में
वो अलग अलग “ध्यान” शिविर अटेंड करते हुवे मिल जाते हैं.
जहाँ उनका “गुरु” एक “अजैन” होता है.
उस समय उनका “ओघा” भी एक किनारे “पड़ा” रहता है.
Shocking!
हमारे गुरुओं ने “काउसग्ग“ पर कभी व्याख्यान देने की गम्भीर चेष्टा नहीं की.
इसीलिए “ध्यान” और उससे सम्बंधित उपलब्धियों के मामले में
“बौद्ध” धर्म के “लामा” हमारे आचार्यों से बहुत आगे हैं.
कारण?
हमने “इधर-उधर” “फांफे“ ज्यादा मारे हैं.
बड़े बड़े “प्रोजेक्ट्स” पर हम काम कर रहे हैं.
(इस पर काम भी काफी हुआ है).
परन्तु जैन धर्म की “मूल ध्यान–विधि“ पर हमने “ध्यान” नहीं दिया.
जो श्रावक “ध्यान” करना चाहते हैं
“गुरु” उन्हें “सरलता” से “उपलब्ध” नहीं हैं.
क्योंकि गुरु तो “मिनिस्टर्स” और “बड़े आदमियों” की
मीटिंग्स में “व्यस्त” रहते हैं.
नतीजा ?
आगे आगे देखो क्या होता है !
चेतावनी:
“जाग्रति” खुद से ही लानी होगी.
“दूसरे” का “भरोसा” नहीं किया जा सकता.
“दूसरे” को तो खुद की समस्यायों से ही निपटने का “ समय“ कहाँ है !
विशेष:
“ध्यान” की कोई भी “विधि” गलत नहीं होती.
परन्तु “अपने धर्म की “ध्यान” “विधि” छोड़कर “दूसरी विधि” को अपना लेना
– क्या इसे “अच्छा” कहा जाना चाहिए ?
वेधक प्रश्न:
क्या “जैन धर्म” में “ध्यान” की “विधियां” अधूरी हैं?
यदि हाँ, तो फिर “प्रधानं सर्व धर्माणां ….”
कहने का “उनको” अधिकार नहीं है
जो अन्य धर्म की “विधियों” को स्वीकार कर चुके हैं.