“सुख” पाने के लिए हर कोई वो करने को तैयार है, जो करना पड़ता हो!
और “धर्म” में आपको कभी “दुखी” रहने की कहीं कोई बात ही नहीं कही गयी है.
एक “साधू” कभी “दुखी” नहीं होता, भले ही कितना भी “कष्ट” क्यों ना आये!
“दुःख” मन में होता है और एक साधू के मन में तो मात्र “अरिहंत” ही बसते हैं
जो कि “परम सुखकारी” है.
सारे “कष्ट” आदमी सुख पाने के लिए ही तो करता है.
“सवेरे” 9 बजे से से रात को 11 बजे तक “दौड़ता” किसलिए है?
“सुख” पाने के लिए!
मतलब “कष्ट” तो सहन करने कि उसकी तैयारी है ही!
“दुःख” पाने के लिए थोड़ी “दौड़” रहा है!
परन्तु इतना “कष्ट” पाकर भी है तो “दुखी” ही!
ऐसा क्यों है?
जरा चिंतन करो.
उत्तर है:
“पुण्य” कमजोर है!
कारण :
1. “अरिहंत” की “वास्तविक” “शरण” में नहीं है.
“जिन वाणी” पर पूरी श्रद्धा नहीं है.
जिन वाणी का मतलब क्या है, ये भी शायद ही पता हो.
स्वयं “भगवान महावीर” ने कहा है:
“सद्धा परम दुल्लहो”
“श्रद्धा” का होना बहुत दुर्लभ है.
आजलोगों को अपनों पर ही विश्वास नहीं है!
(यदि धर्म और गुरु को भी अपना समझते हो, तो वो भी “अपनों” में इसमें शामिल हैं).
ऐसा क्यों है?
क्योंकि “अपनों” में भी वो “खामी” बड़ी “खूबी” से ढूंढ लेता है.
(“खूबी” को नहीं ढूंढता).
इतना होशियार है.
“होशियार” आदमी को अपनी “होशियारी”
दिखाने का “मौका” “कुदरत” भी बार बार देती है
(बार बार नयी नयी परेशानियां खड़ी करती है).
और वो “चालाकी” से उन सबसे “निपटता” जाता है.
भले ही “भलाई” की मानसिकता छोड़नी पड़े!
2. “गुरुओं” की भक्ति “मन” से नहीं करता.
“कुछ” पाने की इच्छा से करता है,
बदले में थोड़ा (कुछ) तो प्राप्त करता ही है! 🙂
3. “श्रावकों” यानि साधर्मिक भाइयों की “भक्ति” वो “1-2 रूपये” से करना चाहता है
“मंदिर” के “भण्डार” में 10 रुपये भी डाले तो बहुत समझता है.
अब “थोड़ा” करने की “भावना” है
तो “पुण्य” की “capacity” भी तो “थोड़ी” ही होगी!
पढ़ें :
“सुख” चाहते हो – तो “स्वार्थी” बनो! भाग -२