“जैनों में संगठन”
जब जब विभिन्न सम्प्रदाय एवं पंथों के जैनों में
“संगठन”
की बात कही जाती है तो समझ लेना कि
वो रहते तो
“संग” में हैं
परन्तु उनकी आपस में
“ठनी” हुई रहती है.
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित
“जिन-वचन” से ज्यादा उनको
अपने अपने सम्प्रदाय और पंथ की चिंता ज्यादा रहती है
इसलिए विभिन्न वेश, मुख वस्त्रिका और मान्यताएं धारण किये हुए है.
श्रावकों को “राग और द्वेष” को बात समझाने वाले स्वयं उसी में फसे हुए है.
इससे “आम श्रावक” में “जिन धर्म” का वो अहो भाव नहीं आ पाता,
जो आना चाहिए.
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राता महावीर