सर्वप्रथम माँ सरस्वती को प्रणाम करके अद्भुत योगीसम्राट श्री शांतिगुरुदेव के “प्रकट” जीवन के बारे में “थोड़ी” सी जानकारी देना चाहता हूँ,
श्री शांतिगुरुदेव का “अप्रकट स्वरुप” अभी तक कोई भी “ध्यान” लगाकर भी जान नहीं पाया है.
उन्हें “याद” करते ही “आँखें” भीग जाती हैं इसलिए उनकी “भक्ति-भजन-संध्या” में बैठना भी मेरे लिए असंभव है.
उनका चरित्र लिखा नहीं जा सकेगा क्योंकि वो अत्यंत “रहस्यमयी” है, फिर भी उन्होंने जो कहा, उसे
जान कर वैसा जीवन जी सकते हैं.
तपगच्छाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभसूरी जी ने तो यहाँ तक कहा कि जैन साधुओं में श्री हीरविजयजी (अकबर प्रतिबोधक) के बाद किसी के पास जाना हो तो,वे है श्री शांतिविजयसूरीश्वर जी!
श्री शांतिगुरुदेव को हर जैन सम्प्रदाय का व्यक्ति ही नहीं पूजता बल्कि हर कौम का व्यक्ति पूजता है.
जैन – श्वेताम्बर-दिगंबर, मूर्तिपूजक-साधुमार्गी, अजैन भी!
जंगल के सिंह भी उनके पास मानो “शान्ति” पाने के लिए आते थे.
उनका नाम था “शान्ति” और सभी को कहते थे : ॐ शांति.
गुरुदेव के प्रवचन में अक्सर भगवान महावीर के उपदेशों का जिक्र होता था. अपने देह त्याग के दो घंटे पहले भी भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण समय की चर्चा करते हुवे उपदेश देने लगे कि कोई भी अपनी आयुष्य का एक पल भी नहीं बढ़ा सकता. यही उनका आखिरी उपदेश था.
भगवान महावीर उग्र विहारी थे और एक दिन में दो योजन (एक योजन = 48 मील यानि कुल 154 किलोमीटर से भी अधिक) विहार करते थे. श्री शांतिगुरुदेव ने भी इसी तरह उग्र विहार केसरियाजी की रक्षा के लिए किये जब उन्होंने मार्कण्डेशर से मंदार गाँव (उदयपुर) 125 मील (यानि की 200 किलोमीटर से भी अधिक ) की दूरी मात्र एक दिन में तय की थी.
“श्रमण परंपरा और इतिहास” से पता चलता है की भगवान महावीर की छद्मावस्था (जब तक “केवलज्ञान” प्राप्त ना हो तब तक जीव “छद्मस्थ” कहा जाता है)आबू पर्वत पर मुख्य रूप से रही और साधना निर्जन स्थान, जंगलों, सांपों के बिल और वृक्षों के नीचे की और अनेक उपसर्ग सहे. श्री शांतिगुरु का साधना स्थल मुख्य रूप से आबू ही रहा और उन्होंने भी साधना निर्जन स्थान, जंगलों, सांपों के बिल और वृक्षों के नीचे किये और उपसर्ग भी सहे.