जिन जैन सम्प्रदायों में “जिन दर्शन” निषेध के नाम पर “समकित” दिया जाता है,
वो किसी भी तरह शास्त्रसम्मत नहीं है.
कोई वो शास्त्र दिखा दे
जो ये कह सके कि एक साधू “समकित” “दे” सकता है.
“सम्यक्त्व” लेने या देने की “वस्तु” नहीं है.
ये “प्राप्त” होने की बात है.
स्वयं तीर्थंकर भी किसी को “सम्यक्त्व” नहीं दे सकते.
हाँ, ये सच है कि हम उनकी बात मानकर
और उस के अनुसार आचरण करके “सम्यक्त्व”
“प्राप्त” कर सकते है.
1. श्री धर्मनाथ भगवान कि सभा में जब पूछा गया कि
आज किसने सम्यक्त्व प्राप्त किया
तो उन्होंने इधर उधर दौड़ते हुए एक “चूहे” की ओर इशारा करके कहा कि
इसके अलावा आज और किसी ने सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया.
2. श्री मुनिसुव्रत स्वामी की धर्मसभा में भी यही प्रश्न उठा
तब उन्होंने एक “घोड़े” की ओर इशारा करते हुए कहा कि
आज इसके अलावा और किसी ने समकित प्राप्त नहीं किया है.
(ये घोडा पूर्व जन्म में उनका “मित्र” था जिसको प्रतिबोध देने के लिए ही उन्होंने एक “रात्रि” में ६० योजन पैदल विहार किया (उनके शरीर का माप भी धनुष था) – “आकाश गमन” जैसी विद्याओं के बारे में जानते हुए भी तीर्थंकर कभी भी “चमत्कारिक शक्तिओं” का प्रयोग नहीं करते इसीलिए पैदल विहार किया (साथ में टोला लेकर भी नहीं फिरे). ज्यादा से ज्यादा साधू ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र में धर्म का प्रभाव (मात्र प्रचार नहीं) फैलाएं, तभी साधू धर्म की सार्थकता है).
अंतिम प्रश्न :
“सम्यक्त्व” देने वाला क्या खुद “समकितधारी” है?
जो किसी को दिया ना जा सके और
कोई उसे देने का दावा करे
तो ये साफ़ है की उन्होंने “जिनवचन” को सही पढ़ा भी नहीं और जाना भी नहीं.
ये “सम्यक्त्व” देने का स्टंट मात्र और मात्र
अपने सम्प्रदाय को “टिकाये” रखने की “चाल” है
जिसे “भोले” श्रावक “भ्रमित” होकर सही मान रहे हैं.