आपको ये जान कर अत्यंत ख़ुशी होगी कि बीस वर्ष के युवक ने ये लिखा कि :
हिमांशु जैन, दिल्ली :
जय जिनेन्द्र आपकी वेबसाइट देख रहा था. बहुत अच्छी है.
एक चीज़ जाननी है. उवसग्गहरं स्तोत्र का मूल मन्त्र 18 अक्षरों का लिखा था.
वह तो भयहर स्तोत्र ( नमिउन ) का है जो मानतुंग सूरि जी ने रचा. उवसग्गहरं तो भद्रबाहु जी की रचना है.
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आपकी जैन धर्म सम्बंधित जिज्ञासा जानकर प्रसन्नता हुई. सारे जैन मंत्र नवकार से ही निकले हैं. भले ही वह उवसग्गहरं भी क्यों ना हो.
नमिउन स्तोत्र की रचना उवसग्गहरं स्तोत्र के बाद की है.
श्री मानतुंगसुरी जी ने इसकी रचना उवसग्गहरं स्तोत्र से निकाली है.
इसलिए नमिउन स्तोत्र से ऊँचा उवसग्गहरं स्तोत्र है और उवसग्गहरं से ऊँचा नवकार है.
जैसे हम कितनी ही प्रगति क्यों ना कर लें, फिर भी हमारे पूर्वजों से ऊपर तो स्थान ले ही नहीं सकते. उसी प्रकार दूसरे कितने भी प्रभावक स्तोत्र क्यों ना हों, वो नवकार का स्थान नहीं ले सकते.
हिमांशु जैन, दिल्ली :
धरणेन्द्र देव ने जो 18 अक्षरों का मूल मन्त्र मानतुंग सूरि जी को दिया होगा , उसमे कहीं उवसग्गहरं निबद्ध होगा और उसे अक्षरों में पिरोकर नमिउन स्तोत्र रचा गया । ऐसा ?
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हाँ.
हिमांशु जैन, दिल्ली :
और… श्रुतदेवता और सरस्वती देवी एक ही है?.. प्रबोध टीका में तो ऐसा नही लिखा. यह किस आधार से कहा गया है ?
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दोनों एक ही हैं.
हिमांशु जैन, दिल्ली :
जी.. वो पढ़ा । आधार ग्रन्थ पूछ रहा हूँ ।
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मैं अनुभव को सबसे ऊँचा आधार मानता हूँ. कइयों ने हज़ारों शास्त्र पढ़ें है पर पढ़ने के बाद भी ज्ञान नहीं हो पाया, ये देखा है. मैं ध्यान को ज्यादा महत्त्व देता हूँ, शास्त्र की बात तो लोगों को समझाने के लिए होती है.
मूल बात ये हैं की शास्त्र आये कहाँ से?
ज्ञानियों के अनुभव से!
पर हमें उसका अनुभव ना हो, तब तक तो उसका आनंद कैसे मिलेगा?
हिमांशु जैन, दिल्ली :
जी आपकी बात बिलकुल यथार्थ है । पांडित्य और ज्ञान में अंतर है। धन्यवाद.
निष्कर्ष:
जो शास्त्र मात्र हमें सिर्फ तर्क सीखाता है, वो “ज्ञान” नहीं दे सकेगा.
क्योंकि तर्क करने वाले को प्रमाण देना होता है.
जिसके लिए शास्त्रों की आवश्यकता होती है.
विडम्बना ये है की शास्त्र कोई पढ़ना नहीं चाहता.
उससे भी बड़ी हकीकत ये है कि चाह कर भी ज्यादातर जैनी शास्त्र पढ़ ना सकेंगे क्योंकि उनकी इच्छा प्राकृत और संस्कृत पढ़ने की है ही नहीं.
जो शास्त्र मात्र हमें सिर्फ तर्क सीखाता है, वो “ज्ञान” नहीं दे सकेगा.
क्योंकि तर्क करने वाले को प्रमाण देना होता है.
जिसके लिए शास्त्रों की आवश्यकता होती है.
विडम्बना ये है की शास्त्र कोई पढ़ना नहीं चाहता.
उससे भी बड़ी हकीकत ये है कि चाह कर भी ज्यादातर जैनी शास्त्र पढ़ ना सकेंगे क्योंकि उनकी इच्छा प्राकृत और संस्कृत पढ़ने की है ही नहीं.
परिस्थिति उससे भी अधिक भयानक होने वाली है: आने वाली पीढ़ी तो हिंदी भी पढ़ने की बात नहीं कर पाएगी.
jainmantras.com का ये प्रयास है कि ताले में बंद हमारे खजाने को साधना के द्वारा सरलता से बाहर लाया जाए. . अब चूँकि खजाना बहुत बड़ा है और ज्यादा से ज्यादा लोग इससे “धनी” बन सकें, तो ज्यादा से ज्यादा लोगों में ही इसे बांटा जाए, ये आप सब का भी प्रयास हो, तभी हम जैन धर्म की प्रभावना कर सकेंगे.
जैन धर्म में करने, कराने और अनुमोदना करने वाले को एक सा फल मिलता है, इतनी सुन्दर बात कही गयी है.