एक भी शब्द सुनाया ना देता हो, तेज म्यूजिक बजता हो, तालिया बजती हों,
तो आजकल कहा जाता है कि बड़ी जोरदार भक्ति हो रही है.
यदि भक्त तालियां ना बजाएं, तो कहकर बजवाई जाती हैं.
जय ना बोलें, तो जबरदस्ती भी बुलवाई जाती है.
“भाव” दिए जाते हैं संगीतकार को, लोगों को “अच्छा” लगता है कि “बहुत बड़े” संगीतकार को बुलाया गया है.
कुछ भजन आजकल मात्र तुकबंदी करने वाले भी बना डालते हैं. एक नमूना देखिये:
“जब कोई नहीं आता, मेरे दादा आते हैं
मेरे दुःख के दिनों में वो, बड़े काम आते हैं.”
ये बहुत प्रिय भजन है लोगों में.
मतलब की बात जो कही गयी है इसमें.
जहाँ तीन चार भजन गाने वाले हों झुण्ड में,
तब तो होड़ लगती है कि किसका भजन “टॉप” हुआ!
उनमें से यदि किसी को भजन गाने ना दिया गया,
तब तो आयोजनकार की खैर नहीं.
होना क्या चाहिए?
भजन वो है जो “आप” गा सको.
भजन वो है जो “आप” को सीधा भगवान से जोड़ दे,
भजन वो है जो गाते ही आप को “चिंतारहित” कर दे.
भजन वो है जो “आप” हर श्वास में “महसूस” कर सको.
हम भजन गायें और “स्वर” बहे,
हम भजन गायें और आँखों से आंसू बहे
हम भजन गायें और पास में क्या है पता ना रहे
तो समझें कि “भक्ति” हुई है.
(हालांकि “समझने” के लिए भक्ति नहीं की जाती).
“मीरा” रो पड़ती थी, भजन गाते समय, तभी तो “मीरा “को आज भी याद किया जाता है.
पर मीरा तो इसलिए रोती थी क्यूंकि उसे “कृष्ण” याद आते थे.
क्या हम कभी भगवान के लिए रोये हैं?
क्या कभी टॉप के किसी संगीतकार को भजन गाते समय आँखों में आंसू लाते देखा है?