अहो, मेरा “जन्म” हो गया है !

जिस अमीर को संसार की ऊँचे से ऊँची सुख-सुविधा प्राप्त हों,
क्या वो “अन्य” के साथ “बैठना” भी पसंद करेगा?
उनके साथ बात करना पसंद करेगा?
उनके दुःख कैसे दूर हों, ये बताने का समय उसके पास होगा?
अरे !
वो तो उन्हें “दुत्कारने” में ही अपनी “शान” समझता है.
उनकी “भलाई” क्या “ख़ाक” करेगा !

 

परन्तु
रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठकर भी तीर्थंकर निर्लिप्त होते हैं.
करोड़ों देवता “समवसरण” में हाजिर होते हैं उनकी सेवा में,
और मजे की बात तो ये है कि वो उनसे किसी भी प्रकार की सेवा लेते नहीं हैं.
मजदूरी करने वाले भी उनके समवसरण में तो प्रवेश करते ही हैं,
जानवर भी प्रवेश करते हैं
और तीर्थंकरों के “अतिशय” के कारण वे भी अपना कल्याण कर पाते हैं.
तीर्थंकरों का सबसे बड़ा “चमत्कार” यही है.

 

जो उनके उपदेश सुनता है,
उस अनुसार कार्य करता है,
वो मुक्ति की और बढ़ जाता है.

 

यदि ये ही ऋद्धि किसी अन्य के पास हो तो?
उसके पाँव ही जमीन पर नहीं होंगे.

ये भी सत्य है कि जो अपनी “ऋद्धि” को दिखने का प्रयास करता है
उसके पास वो ऋद्धि टिकती भी नहीं है.
जैसे ही सिद्धि का दुरुपयोग होता है वैसे ही
ऊँची सिद्धि प्राप्त करने वालों को नीचे गिरते देरी नहीं लगती.

 

कहने का आशय ये है कि
“जिस प्रकार बंद मुट्ठी लाख की,
उसी प्रकार “बंद ऋद्धि सवा लाख की”

एक सामान्य केवली और एक तीर्थंकर के “ज्ञान” में कोई फर्क नहीं होता है.
परन्तु “लोक कल्याण” की जो भावना तीर्थंकर में बलवती होती है,
वो “केवली” में नहीं हो पाती
क्योंकि एक “सामान्य केवली” में वो “सामर्थ्य” नहीं होता जो एक तीर्थंकर में होता है.

 

अब जिसके पास “सामर्थ्य” हो और वो उसका उपयोग ना करे,
तो फिर “सामर्थ्य” ही क्या हुआ?
इसी कारण एक बार “केवल ज्ञान” प्रकट हो जाने के बाद
तीर्थंकरों की “वाणी” से
“ज्ञान का घोघ” सतत बहा करता है.
“समुद्र” भले ही विशाल हो,
परन्तु किनारे पर आकर उसकी “लहरों” का अस्तित्त्व “समाप्त” हो जाता है.
जबकि एक तीर्थंकर की वाणी
दूसरे जीव भी तीर्थंकर बने या उनके जैसा ज्ञान प्राप्त करें,
ऐसा बनने में सहायक होती हैं
(जबकि एक समुद्र दूसरा समुद्र नहीं बना सकता).

 

तीर्थंकरों की वाणी को “ज्ञान का सागर” कहा जाता है.
चूँकि समझाने के लिए “सागर” से बड़ी उपमा दूसरी विद्यमान नहीं है
इसलिए तीर्थंकर की वाणी को “सागर” की उपमा दी जाती है.

(दूसरी और इसी संसार को भव-समुद्र की उपमा दी जाती है – जो पार करने के लिए तीर्थंकरों की वाणी ही सहायक बनती है – अब तो स्पष्ट है कि तीर्थंकरों  की वाणी को “समुद्र” जैसा बताना हमारी मजबूरी है क्योंकि दूसरी कोई अन्य उपमा देना संभव नहीं है).

 

तीर्थंकरों के प्रभाव  को हम तो क्या, खुद मानतुंग सूरी जैसे आचार्य भी उनके आगे अपने आप को पांच वर्ष का बालक समझते हैं.

हम तो “जैन धर्म” को अभी “समझ” ही नहीं पाये हैं,
क्या धर्म के इस दृष्टिकोण से हमारा “जन्म” भी हो गया है?

ज्यादा चिंतन करोगे तो रो पड़ोगे !

और यदि आँखों से आंसू आते हैं

तो समझ लेना कि “धर्म” के दृष्टिकोण से आपका “जन्म” हो गया है !

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