भगवान् ऋषभदेव के जन्म के समय इंद्र द्वारा की गयी स्तुति :
हे तीर्थनाथ!
हे जगत को सनाथ करनेवाले,
हे कृपारस के समुद्र,
आपको नमस्कार करता हूँ.
हे नाथ!
जिस प्रकार नंदन आदि तीन उद्यानों से मेरु शिखर शोभायमान है,
उसी प्रकार मति, श्रुत और अवधिज्ञान से आप शोभायमान हो.
हे देव!
आज भरतक्षेत्र स्वर्ग से भी विशेष शोभायमान है
क्योंकि त्रैलोक्य में मुकुट समान आपने उसे सुशोभित किया है.
हे जगन्नाथ!
जन्म कल्याणक के महोत्सव से पवित्र हुआ ये शुभ दिन
मैं संसार में रहूं तब तक आपको वंदन करता रहूं.
ये आपके जन्म से नारकी जीवों को भी सुख प्राप्त हुआ है.
क्योंकि अरिहंतों के “उदय” से किसका “संताप” दूर नहीं होता?
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में धर्म-निधन नष्ट हो चूका है,
उसे अब आपकी “आज्ञा” रूप बीज से वापस प्रकाशित करो.
हे भगवन!
आपके चरण की शरण से अब कौन “संसार” से तरेगा नहीं?
क्योंकि “नाव” में रहा हुआ “लोहा” भी समुद्र को पार कर जाता है.
हे भगवान्!
वृक्ष बिना के देश में जिस प्रकार कल्पवृक्ष उत्पन्न होता है,
मरुदेश में जिस प्रकार नदी का प्रवाह उत्पन्न होता है;
उसी प्रकार इस भरतक्षेत्र के लोगों के पूण्य से आप अवतरित हुवे हो!
(श्री चतुर्विंशति जिन स्तुति देशना संग्रह – १०५ वर्ष प्राचीन गुजराती पुस्तक से उद्दृत-हिंदी अनुवाद )