भगवान के “चरण” ही उनकी “शरण” के लिए हैं

जब “हम” प्रभु को “समर्पित” हो जाते हैं
तो हमारे “दुष्ट ग्रहों” को भी
प्रभु के पास “समर्पित” हो जाना पड़ता है.

क्योंकि वे “दुष्टग्रह” “हमारे” हैं  🙂

 

हम जहाँ जाएंगे
उन्हें भी वहीँ जाना पड़ेगा 🙂
इसलिए ज्योतिषियों के “फेरे” ना लगाओ.
“जिन मंदिर” में प्रभु की “फेरी” लगाओ.

भगवान की  “शरण” में
हम तभी जा पाते हैं
जब हम “बालक” बनकर
अपनी “बुद्धि” को
उनके “चरण” में रख दें.

 

इसीलिए तो हम भगवान के चरणों में
अपना “मस्तक” झुकाते हैं.
ये इस बात को प्रकट करता है कि भगवान के दर्शन
करते समय “अपनी” “बुद्धि” किनारे रखें

और यदि ऐसा ना कर सकते हों तो
“अपनीबुद्धि” उनके चरणों में सौंप दें.
बुद्धि  मस्तक में होती है, इसीलिए ज्ञानियों ने
भगवान के आगे मस्तक झुकाने की बात कही है.

 

हम आज तक भेड़-चाल से हमारा मस्तक झुकाते हैं
पर वास्तव में “अकड़” तो वो की वो रहती है.
फिर यदि कोई कहे कि देखो धर्मी कहे जाने वाले भी कितनी
“अकड़” रखते हैं, तो सही ही कहते हैं.

कई लोगों का ये अनुभव है कि हम तो रोज मंदिर “जाते” हैं पर
कुछ भी फर्क नहीं पड़ा. इसका कारण उनके “वाक्य” में ही समाया हुआ है.

 

वो ये नहीं कहते कि हम रोज मंदिर “दर्शन” करने जाते हैं.
ये “दर्शन करने जाते हैं”- शब्द जब तक मुंह से नहीं निकलेंगे
तब तक जीवन में कुछ भी फर्क नहीं आएगा.

हमारा जीवन सरल तभी बन सकता है
जब हमारा व्यवहार सरल हो जाए.

 

हमारा “सीखना” उस दिन पूरा होगा
जिस दिन हम “अरिहंत” को
नमस्कार” करना “सीख” लेंगे.

(कई जन तो जैन मंदिर के दर्शन करने का “विचार” भी नहीं कर पाते
– उनके गुरुओं ने “जैन मंदिर में आशातना होती है”
– ऐसी “शिक्षा” जो दे रखी है).

 

फोटो:
400 वर्ष प्राचीन स्वयंभू प्रकट, अति प्रभावक और नयनरम्य
श्री आदिनाथ भगवान, नाहटों का मोहल्ला, बीकानेर
(इस प्रतिमाजी के जैसे नेत्र हैं, वैसे कही और देखने में नहीं आये

ये प्रतिमाजी पालिताना के आदिनाथ भगवान की प्रतिमाजी के समकक्ष है ).

 

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