भगवान महावीर की अंतिम देशना “शुरू” होती है : धन्य तेरस के दिन से और “पूरी” (ख़त्म नहीं) होती है दिवाली के दिन.
जीवन के अंतिम समय में जब किसी को दिया जाता है, वो “सम्पूर्ण” होता है. मनुष्य जब वसीयत करता है, तो सारी प्रॉपर्टी कैसे बांटी जाए, इसकी व्यवस्था करता है जो उसके मरने के बाद की जाए.
तीर्थंकरों के तो सारे वचन अपने आप में “सम्पूर्ण” होते हैं. फिर भी ये अंतिम देशना बड़ी महत्त्वपूर्ण है इसीलिए आगमग्रन्थों में ये अंतिम देशना “प्रथम” गिनी जाती है और इसे “उत्तराध्ययन सूत्र” का नाम दिया गया है.
गणधरों ने इसे कुल 36 अध्याय (chapters) में बांटा है. मानो आचार्यों के 36 गुणों को याद रखा हो; ऐसा करते समय. बड़े ही रोचक प्रसंगों में “जीवन” का सारा निचोड़ भगवान महावीर ने दे दिया है. (हममें से तो कइयों को मालूम ही नहीं होगा कि ये “उत्तराध्ययन सूत्र” क्या है).
अभी भी जो लिखा जा रहा है, वो उन्हें ही साक्षी मान कर लिखा जा रहा है. भगवान महावीर के समवसरण की प्रतिमा सामने है.
सार है :
“दुर्गति” को व्यक्ति खुद “न्यौता” देता है और “सद्गति” की बातें उसे प्रिय नहीं लगती.
संसार में ऐसा करना ही पड़ता है, ये कहकर वो “कुछ” भी करता है.
बिल्डिंग लाइन में काम करने वाले अपना “काम” निकलवाने के लिए “ऑफिसरों” के लिए “कुछ भी” करते हैं.
जबकि भगवान ने बार बार कहा है कि ये संसार असार है.
पर हम तो बात संसार की ही करते हैं.
इसीलिए वो बातें हमारे कानों तक पहुंचकर भी “असर” नहीं करती और “सर” के ऊपर से निकल जाती हैं.
जो साधू पथभ्रष्ट हुवे हैं, उन्हें वापस मार्ग पर लाने में “श्रावक” ही महत्त्वपूर्ण है, ये उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है.
अपने ही साधुओं को पांच परमेष्ठी में पूजित बताना और उनके ही मार्ग-च्युत होने पर भरी सभा में बताना, यही जिन-धर्म की महानता है. “अपनों” का भी कोई पक्ष नहीं लेना यदि वो गलत हों.
सबसे महत्त्पूर्ण बात तो ये है कि साधू बनते ही वो पूजनीय हो जाता है श्रावक के लिए, भले ही अभी कुछ ज्ञान भी ना हो.