भगवान महावीर की अंतिम देशना-3(कुलवालक)

नगरी में श्री मुनिसुव्रतस्वामी का महाप्रभावक स्तूप था.

आकाश में से किसी देवता ने कोणिक को कहा: जब तक ये स्तूप है, तुम नगर में प्रवेश नहीं कर सकते. दूसरा, जब “मागधिका वेश्या” के साथ “कुलवालक” मुनि क्रीड़ा  करेंगे, तभी तुम ये नगर ले सकोगे.
कोणिक ने राजगृही से “मागधिका वेश्या” को बुलाया और “काम” सौंपा.
उसने कपट रूप से “श्राविका” का रूप धारण किया.
मुनि के पास जाकर बोली : में तीर्थयात्रा करने निकली हूँ. साधुओं   को वंदन करने के बाद ही भोजन करती हूँ. आप भिक्षा ग्रहण करो.
भिक्षा में उसने नेपाला चूर्ण डालकर लड्डू बनाये जिसे लेकर कुलवालक” मुनि को अतिसार हो गया. “सेवा” के बहाने उसने साधू के शरीर को दबाना इत्यादि चालू किया जिससे अंत में “मुनि” उस पर आसक्त हुवे. क्रीड़ा करने के बाद उन्हें “कोणिक” के पास ले गयी.

 

कोणिक ने विशाला नगरी को जीतने का उपाय पुछा.
साधू ने “श्री मुनि सुव्रत स्वामी का स्तूप” उखाड़ने पर ही जीत संभव है, ऐसा बताया.
ये काम भी साधू को ही सौंपा गया.
(साधू होकर भी चारित्रभ्रष्ट तो हो ही चुके थे, स्तूप उखाड़ने की सलाह ही नहीं दी बल्कि वो काम भी खुद ही करने को तैयार हो गए – अपने तप के प्रभाव से नदी की दिशा भी बदल  सके पर अज्ञान तप के कारण दुर्गति में कैसे पड़े , इसका ये सबसे जोरदार उदाहरण  है)

 

“पंडित” “बनकर” साधू नगर में पहुंचे और 12-12 वर्ष तक जो नगरवासी “झेल” रहे थे, उस “घेराव” से बचने का उपाय पूछा. स्तूप उखड़ा और तुरंत ही कोणिक ने नगर में प्रवेश किया.
कोणिक ने नगरी में “गधों” से हल चलवाया.
कुलवालक चरित्रभ्रष्ट होकर अंत में दुर्गति में गए.

 

विश्लेषण:
१. कहाँ “श्रेणिक” राजा जो दिन भर “वीरवीर” रटते रहते थे और इसी क्रिया से उन्होंने “तीर्थंकर” नाम कर्म पाया और कहाँ उनका पुत्र जो श्री मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप उखाड़ने में कारण भूत बना.
२. हल्ल-विहल्ल का उल्लेख “भरहेसर बाहुबली” की सज्झाय में आता है.
३. गुरु का “विनय” ना करने से शिष्य दुर्गति पाता है.
४. “वरदान” और “शाप” के आगे उच्च ग्रहों और तप का  भी कोई मूल्य नहीं है. वे सब “धरे” रह जाते हैं.

 

शिक्षा:
१. गुरु सोच समझकर करें.
२. गुरु के आगे उच्च भाव रखें. उनका बहुमान करें.
३. जिस गुरु के प्रति “भाव” ना रहते हों, बल्कि बिगड़ते हों,
तो वहां नहीं जाना. “शाप” ही मिलने का डर है.ये बात अति सामान्य लोगों के लिए है. जो उच्च कोटि के श्रावक हैं, वो तो “वेश-मात्र” को ना सिर्फ नमस्कार करते हैं, बल्कि भक्ति भी खूब करते हैं.

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