श्री भक्तामर स्तोत्र की दसवीं गाथा में
“आचार्य” श्री मांगतुंग सूरी का
ये श्रद्धा, विश्वास और भक्ति प्रकट हुई है कि –
हे भगवन !
आपकी स्तुति करने वाला
आपके समान ही बन जाता है.
(तुल्या भवन्ति…)
बस यही बात मुझे “चकित” करती है.
जैन धर्म के अनुसार
प्रभु से जुड़ने वाला प्रभु की तरह ही हो जाता है.
जबकि गुरु से जुड़ने वाला गुरु नहीं बन जाता.
कारण?
गुरुओं को रास्ता दिखाया किसने ?
अरिहंत ने !
आज?
“छाप” गुरु की लग रही है !
बेचारे भक्त भी यही कर रहे हैं
(जो सिखाया गया, वही तो करेंगे).
कितना बड़ा ब्लंडर हो रहा है.
गुरु स्वयं भगवान् तक पहुंचते ही नहीं !
“अपने” ही गुरुओं के गुणगान में लगे हैं !
** महावीर मेरापंथ **