जब जब कोई ये कहता है की

अपने  “धर्म” पर संकट आ गया है

उसी समय ये समझ लेना चाहिए कि

संकट धर्म पर नहीं

बल्कि उनके “सम्प्रदाय” पर आया है.

 

धर्म तो व्यक्ति की रक्षा करता है,

उस पर संकट कैसे आ सकता है?

ये संकट तभी आता है जब सम्प्रदाय को मानने वाले

धर्म को समझने की मौलिक भूल करते है.

 

हर व्यक्ति अपने ही सम्प्रदाय को इतना महत्त्व क्यों देता है?
“क्योंकि” वो समझता है कि हम जो “क्रिया” अपना रहे हैं,
वही सबसे ज्यादा सही है.

और यही सबसे बड़ी भूल है.

जो “धर्म”(Branch of Religion)

“आत्मा” नाम के तत्त्व को भूल कर

 

अपने अपने विचारों या/और क्रियाओं को “दूसरों” पर थोपने कि “चेष्टा” करता है,
वो स्वयं ही “धर्म” तो क्या उसके मार्ग पर ही नहीं है.

ऐसा धर्म “आत्मसंतुष्टि” Self Respect)  दे सकता है
पर “आत्मज्ञान” (Self Realization) नहीं दे सकता.

 

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