हर छोटे से छोटा बच्चा किसी वस्तु को पहले देखता है, फिर उसे मुँह में ग्रहण करने की चेष्टा करता है.
उसे किसी ने कुछ कहा कि ऐसा करो?
नहीं न!
कारण है उसने अभी तक दूध ही पीया है,
उसके अनुसार हर वस्तु मुँह में लेने लायक होती है,
भले जूता ही क्यों न हो!
ये उसका अनुभव है!
नवकार को हमने अपने “मुख” में ग्रहण बचपन से किया है, कभी उसका “स्वाद” आया है? लेने की चेष्टा भी की है?
हम कोई दूध पीते बच्चे तो रहे नहीं कि अनुभव शून्य रह कर सिर्फ संख्या पूरी करने के लिए जीवन भर नवकार रटते रहेंगे!
हमारी स्वयं की “चेतना” जाग्रत करनी है या नहीं?
ये प्रश्न करना चाहिए या नहीं?
ये प्रश्न अभी तक क्यों नहीं उठा?
बचपन से रही हमारी जिज्ञासा खो क्यों गई?
इन सबका उत्तर कौन देगा?
है कोई गुरु जिसने ये प्रश्न आपके सामने रखे हों?
फिर निवारण भी किए हों?
सम्भव ही नहीं,
क्योंकि अपनी चेतना तो अपने को ही जाग्रत करनी पड़ती है,
“साधना” उच्च कोटि की तभी होती है
जब लक्ष्य ऊंचा हो,
बुद्धि में विवेक भी जाग्रत हो!
महावीर मेरा पंथ