“करेमि भंते” सूत्र का अर्थ है:
हे भगवंत! मैं “सामायिक” करता हूँ उसमें पाप का पच्चक्खान करता हूँ. जब तक नियम में हूँ, तब तक मन,वचन और काय से कोई पाप कार्य करूँगा नहीं और कराऊंगा नहीं. भूतकाल में किये गए पापों से में पीछे हटता हूँ (Feeling really very sorry), उस कार्य की निंदा करता हूँ और उस पाप करने वाली “आत्मा” का त्याग करता हूँ.
दीक्षा लेते समय यही सूत्र “तीर्थंकर” सिध्दों को साक्षी रखकर खुद ही कहते हैं, क्योंकि तीर्थंकर “स्वयंबुद्ध” होते हैं, उनके “प्रत्यक्ष” गुरु कोई नहीं होते.
दीक्षा लेते समय यही सूत्र दीक्षार्थी कहता है – गुरु के समक्ष.
क्या ये “आश्चर्य” नहीं है कि यही सूत्र सभी श्रावकों को दे दिया गया है!
क्या हमें ये अधिकार मिलना चाहिए था?
“करेमि भंते” सूत्र श्रावकों को देने के पीछे रहस्य:
जैन दर्शन कहता है कि तत्त्व से हर जीव में “मोक्ष” जाने की योग्यता है.
जीव का अंतिम लक्ष्य भी “मोक्ष” प्राप्त करना ही है.
ये कहा जाता है कि “पात्र” को ही दीक्षा दी जाती है, यानि दीक्षा उसी को दी जाती है जिसमें योग्यता हो.
प्रश्न ये उठता है कि : फिर करेमि भंते बोलने का “अधिकार” सभी श्रावकों को क्यों दिया गया? क्या सभी में ऐसी योग्यता है?
(एक मिनट चिंतन करो कि क्या इस सूत्र को बोलने के हम “अधिकारी” हैं जिन्हें वास्तव में “सामायिक ” पारते ही वापस “सावद्य” कार्यों में जुट जाना है)?
उत्तर: हमारे तीर्थंकर और आचार्य बहुत पहुंचे हुवे थे और हैं.
( वैदिक धर्मं में कुछ साधू-महात्मा बहुत “पहुंचे हुवे” कहे जाते हैं. उनका स्वयं का “आभामंडल” इतना प्रभावशाली होता है कि जो उनके “दर्शन” करने के योग्य होता है, उसी को “दर्शन” देते हैं – व्यावहारिक जगत में भी हमारे आस पास ही कुछ लोग “पहुंची हुई माया” के नाम से जाने जाते हैं 🙂 ).
अब महत्त्व की बात:
यदि पापियों को “धर्म” करने का अधिकार ना दिया जाए तो “धर्म” की “शुरुआत” कहाँ से हो पाएगी?
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