पहले करेमि भंते!- भाग 1 और 2 अवश्य पढ़ें.
अब महत्त्व की बात से आगे:
यदि पापियों को “धर्म” करने का अधिकार ना दिया जाए तो “धर्म” की “शुरुआत” कहाँ से हो पाएगी?
जिस प्रकार एक बच्चा कुल में “जन्म लेने के साथ ही” परिवार की सभी सुख-सुविधाएं भोगने का अधिकारी हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जैन धर्म अंगीकार करने के साथ ही व्यक्ति “जैनी” समझा जाने लगता है भले ही उसने अभी नवकार बोलना भी नहीं सीखा हो.
बात चल रही है :सामायिक सूत्र “करेमि भंते” बोलने के अधिकार की!
“सामायिक” जैनों के लिए अति आवश्यक (Necessary) है.
“नवकार” बोलने की “सही शुरुआत” सामायिक लेने से ही होती है.
सामायिक लेने की प्रतिज्ञा लेना मतलब जैन-धर्म के पूरे “सिस्टम” को मानना.
“दूकान” लेकर “धंधा” करना और “फेरी वाला धंधा” करना – दोनों की गुडविल में दिन रात का अंतर है जबकि करते दोनों “धंधा” ही हैं.
बिना “सामायिक” लिए “नवकार की माला” “फेरना” मतलब “फेरी वाला” सिस्टम अपनाना है, भले ही हम “माला” मन लगाकर फेरते हों!
लोगस्स का काउसग्ग भी “सामायिक” में ही होता है. क्योंकि काउसग्ग करने की भी तो एक विधि है – काउसग्ग करने से पहले अन्नत्थ सूत्र बोला जाता है – अपने आप को “सावधान” करने के लिए.
सामायिक में बोले जाने वाले सभी सूत्र बड़े सिस्टेमेटिक ढंग से सेट किये गए हैं.
हम हैं कि इसे बिना जाने, बिना समझे वो महत्त्व नहीं दे रहे जितना महत्त्व हमें हमारे तीर्थंकरों और आचार्यों ने दिया है.
पिछली पोस्ट में कहा गया कि “सामायिक” लेना “वीरों” का कार्य है, प्रतिज्ञा कायर नहीं लेते.
जैन धर्म मूल रूप से “क्षत्रियों” का धर्म है क्योंकि सभी तीर्थंकर जाति से “क्षत्रिय” होते हैं और वही धर्म की स्थापना करते हैं. क्षत्रिय जाति स्वभाव से “शूरवीर” होती है. क्या ये आश्चर्य नहीं है कि “रक्षा” के लिए “युद्ध” लड़ने वाली जाति “अहिंसा परमो धर्म” जैसा सन्देश देती है?
जो स्वयं “वीर” ना हो क्या वो “अहिंसा” का सन्देश दे सकता है?
आगे पढ़ें :करेमि भंते ! (4)