कुछ प्रश्न पूछो अपने आप से –
आपके “जीवन” की “सबसे अच्छी” घटना कौनसी है?
(इसके उत्तर के लिए यदि आपको सोचना पड़ रहा है –
तो इसका मतलब ये है कि आप “जीवन” “बिता” रहे हैं,
“जी” नहीं रहे.
– ये भी हो सकता है कि
“आज” आप निर्णय नहीं कर पा रहे कि
जो घटना “उस समय” बहुत अच्छी थी,
उसके बाद “दूसरी अच्छी” घटनाओं के कारण
वो अब उतनी अच्छी नहीं रही ).
सारांश :
“जीवन” में कुछ भी स्थायी नहीं है. हम व्यर्थ में अपने को “घटनाओं”
(वर्तमान परिस्थितियों) से जोड़ लेते हैं.
ज्यादातर व्यक्ति “एक ही बात” “दो तरीके” से करते हैं
जवानी में : मेरे “पास” “टाइम” नहीं है.
बुढ़ापे में : मेरा “टाइम” “पास” नहीं होता.
जवानी में यदि दौड़ रहे थे
तो आज रुक क्यों गए?
बोलेंगे :
अब “मेरा” शरीर साथ नहीं देता. ये जो “मेरा” शब्द
मुंह से निकाल रहे है, वो किस बात का सूचक है?
जरा आँखें बंद करके मात्र एक मिनट के लिए विचार करो.
“मेरा” शरीर : मतलब “मैं अलग हूँ” और मेरा “शरीर” अलग है.
जैसे “मेरी” “कार;”
यानि मैं अलग हूँ और “कार” अलग है
मेरी होते हुए भी मैं ये नहीं कह सकता कि “मैं” ही “कार” हूँ!
यदि ये बात मन में फिट हो गयी तो समझ लेना आपने
“आत्मा” और “शरीर” के भेद को जान लिया है.
जिसे आप “युगों” और “योगों” (yoga) से भी नहीं जान पाये.
इससे क्या लाभ है?
१. हम मोह करना छोड़ देंगे.
२. हम “घटनाओं” से “राग” करना छोड़ देंगे.
जो हो रहा है, वो साक्षी भाव से देखेंगे.
यहाँ पर फिर एक बार रुको.
आँखें देख सकती है
पर “जानने” की शक्ति उसमें है क्या?
“आँखों” से “जानने” की शक्ति
मात्र
आत्मा में है,
शरीर में नहीं.
अब पूछो अपने आप से :
आज आपने क्या जाना?