नमो तित्थस्स
चतुर्विध संघ
(साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका)
को दीक्षा देने के बाद स्वयं तीर्थंकर
समवसरण में देशना देने से पहले
“नमो तित्थस्स ”
कह कर संघ को नमस्कार करते हैं.
खुद ही तीर्थ (चतुर्विध संघ) की स्थापना करते हैं,
और खुद ही उसे नमस्कार करते हैं.
देखी है ऐसी व्यवस्था किसी अन्य धर्म में ?
जैन धर्म को
“प्रधानम् सर्व धर्माणं”
ऐसे ही थोड़े कहा जाता है.
ये तो हुई बहुत अच्छी बात!
अब सोचने वाली बात ये है कि
हम में ऐसा कौनसा “गुण” प्रकट हुआ
जिसके कारण तीर्थंकर भी हमें नमस्कार करें!
यदि उस “गुण” को ढूंढने में हम असमर्थ हैं
तो इसका मतलब हम श्रावक नहीं हैं.
क्योंकि तीर्थंकर हर समय “सत्य भाषण” ही करते हैं.
यदि हमें ऐसा गुण खुद में नज़र नहीं आता हो
जिसके कारण तीर्थंकर हमें नमस्कार करें,
तो इसका मतलब हम कहने मात्र के लिए जैनी हैं,
वास्तव में हैं नहीं.
आज का “होम वर्क”
यही है कि स्वयं के श्रावक होने का
“सत्यापन” किया जाए.
उत्तर जानने के लिए रोज पढ़ते रहें:
jainmantras .com
फोटो:
४०० वर्ष से भी अधिक प्राचीन
“समवसरण” में विराजमान
श्री आदिनाथ भगवान ,
रांदेर गाम, सूरत