पहले “कहे कलापूर्ण सूरी-3 पढ़ें.
8. पहली माता “वर्णमाता” की उपासना के लिए श्री हेमचंद्रसूरी ने योगशास्त्र के 8 वें अध्याय (Chapter) में “ध्यानविधि” बतायी है.
नाभि में : “अ से अ:” (कुल 16)
ह्रदय में: “क से भ” (कुल 24) बीच में “म” = 25
मुंह में : “य से ह” (कुल 8)
= 49
इस प्रकार ध्यान करना है.
कुछ ही दिनों में ध्यान में ये अक्षर “सोने” जैसे चमकते हुए दिखाई देंगे.
यही मंत्र-रहस्य है जो “साधक” को कुछ ही समय में प्राप्त होता है.
(दुर्भाग्य से “हिंदी” ना पढ़ने के कारण हम इसकी महत्ता आसानी से नहीं जान पाएंगे. संस्कृत तो बहुत दूर की बात हो गयी है).
(शरीर में 7 चक्र हैं. हर चक्र जन्म से सात वर्ष में विकसित होता है. इस प्रकार हर चक्र को पार करने में उसे 7 वर्ष लगते हैं. ज्यादातर व्यक्तियों का विकास 2 चक्रों पर आकर ही रूक जाता है इसीलिए मात्र “भोगों” में ही उनकी “रूचि” रह जाती है – जीवन भर के लिए).
होमवर्क : वर्णमाता का 49 अक्षर का होना क्या सूचित करता है?
स्वयं कलापूर्ण सूरी जी कहते हैं की हम तो डाकिये (POSTMAN) हैं.
बिमारी के कारण शरीर अशक्त हो तो भी उसे गौण करके हज़ार हज़ार श्रद्धालुओं पर वासक्षेप “डाला” है, क्योंकि भगवान ने हमें ये काम सौंपा है.
(तीर्थंकरों को महत्ता ना देकर मात्र गुरुओं को पूजने वाले जरा ध्यान दें – या मात्र “दिखलाने” के लिए “ऊपर” से तीर्थंकरों को महत्ता देने वाले गौर करें की उन्होंने कौनसा “मार्ग” अपनाया है – कुछ सम्प्रदायों की देखा देखी अन्य सम्प्रदायों में भी “गुरुओं” की महत्ता “तीर्थंकरों” से भी ऊपर की जा रही है इसीलिए उनके भक्त अब “गुरु मंदिर” बनाने लगे हैं. जबकि “गुरु चरण” (चरण-पादुका) से ऊपर कभी गुरु की “छवि” रही ही नहीं ).