अपना दर्पण : अपना बिम्ब
ग्यारहवां संस्करण (1997)
कुछ संशोधन की आवश्यकता, ताकि जैनी जिनागम से भटके नहीं:
पृष्ठ 121 पर लिखा है:
1. “तंत्रशास्त्र और हठयोग” में “चक्रों” का निरूपण है किन्तु जैन साहित्य में उनका कोई निरूपण नहीं है.
2. जैन परंपरा में ध्यान की पद्धति का “विलोप” हो जाने के कारण इस प्रश्न का उत्तर खोज भी नहीं गया.
3. हरिभद्र सूरी, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने अपने योग ग्रंथों में हठयोग का समावेश किया,
4. किन्तु जैन साहित्य में उपलब्ध चक्रों की ओर ध्यान नहीं दिया.
5. अतीन्द्रिय ज्ञान की खोज और उसकी उपलब्धि में जैन साधक आगे नहीं बढ़ सके.
6. वास्तविकता है कि शरीर के बारे में सही जानकारी नहीं रही और उसका सही मूल्यांकन नहीं किया गया.
7. हम केवल “आत्मा” शब्द पर “अटक” गए.
स्पष्टीकरण:
1. जैनों के जो आचार्य पूर्व में “ब्राह्मण” थे उन्होंने अपने “जन्म-संस्कारों” के कारण हठ योगादि का वर्णन किया है.
2. जैन परंपरा में ध्यान की पद्धति का “विलोप” होने की बात कहना असत्य है. कायोत्सर्ग क्या है? ध्यान की ही “विधि” है. क्या इसे दूसरे धर्म में मान्यता है? नहीं! क्योंकि सभी के विधि-विधान अलग होते हैं. लोगस्स के बारे में शास्त्रीय मत को भी पढ़ने की जरूरत है.
3. अतीन्द्रिय ज्ञान की खोज एवं उसकी उपलब्धि में जैन साधू-साधक काफी आगे रहे हैं, परन्तु उन्होंने कभी इसका प्रचार करने की चेष्टा नहीं की. उन्होंने हरदम “प्रभाव” बढ़ाने पर जोर दिया. “प्रचार” पर नहीं.
4. कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के अतीन्द्रिय ज्ञान के बारे में काफी जानकारी उपलब्ध है, जिसे गौर से पढ़ना चाहिए. श्री सिद्धसेन दिवाकर (कल्याणमन्दिर स्तोत्र के रचनाकार), श्री मानतुंग सूरी (भक्तामर स्तोत्र के रचनाकार), श्री मानदेवसूरी (लघु शांति के रचनाकार), श्री महेन्द्रसूरी, श्री देवसूरी इत्यादि अनेक प्रभावशाली आचार्य हुवे हैं, जिनका विस्तार से वर्णन श्री प्रबंध चिंतामणि ग्रन्थ में दिया हुआ है.
5. श्री हेमचन्द्राचार्य ने अपने महान ग्रन्थ “योग शास्त्र” में सभी चक्रों का अद्भुत वर्णन किया है. इस ग्रन्थ से उनके ज्ञान की कुछ बूँदें अपना दर्पण:अपना बिम्ब में डाली जा सकती हैं.
6. जैन धर्म कोई भी क्रिया मन, वचन और काया से करने पर ही जोर देता है. काया में ही “मन” है और काया से ही “वचन” निकलते हैं. वास्तव में मन, वचन और काया तीनों “शरीर” से ही “सम्बंधित” हैं. इसलिए ये कहना की जैन धर्म में शरीर के बारे में “सही” जानकारी नहीं रही, सही नहीं है.
जब सबसे “विशेष” जानकारी जो सबसे ज्यादा लाभकारी है, जैन धर्म में हरेक को दी गयी है, तो इससे ज्यादा और क्या चाहिए.
7. हम केवल “आत्मा” शब्द पर “अटक” गए – “आत्मा” शब्द पर “अटकने” जैसे शब्द का प्रयोग करना ये बताता है कि जैन धर्म के मूल सिद्धांतों से ही “भटक” रहे हैं.