माँ सरस्वती का स्मरण

माँ सरस्वती का स्मरण करते हुवे :

सरस्वती महादेवी अर्हन्मुखनिवासिनी |
वीणापुस्तकधारिणी वँ सर्वसुखकारिणी ||

सरस्वती अष्टोत्तरशत (१०८) और  सहस्त्रनाम (१००८)
स्तोत्र भी जैन ग्रंथों  में उपलब्ध हैं.

 

सभी जैन सम्प्रदाय सरस्वती को “समकितधारी” स्वीकार करते हैं.
सरस्वती को नमस्कार करना मिथ्यात्व नहीं है.
परन्तु सत्य तो ये है कि “महालक्ष्मी” भी “समकितधारी” है
इसलिए उसे भी नमस्कार करना मिथ्यात्व नहीं है.

सम्यक्त्त्व” का पैसा कमाने और ना कमाने से कोई सम्बन्ध नहीं है.
यदि ऐसा होता तो जो “श्रावक“पैसा कमाते हैं वो समकितधारी नहीं कहे जाएंगे.

 

वर्तमान शिक्षा प्रणाली (English Medium) पढ़ने वाले लोगों का ये तर्क रहता है कि

विदेशों में ना तो सरस्वती पूजी जाती है और ना ही लक्ष्मी,

फिर वहां के लोग “शिक्षित” और “ज्यादा पैसे” वाले क्यों हैं?

इसका उत्तर ये है  कि :
जैन धर्म के अनुसार वो शिक्षा “सच्ची” शिक्षा नहीं है जो “मोक्ष” मार्ग की और ना ले जाए.
और वो “पैसा” कमाना किसी काम का नहीं है, जो “समृद्धि” ना लाये.

 

सच्चे श्रावक पैसा कमाते हुवे भी धर्म “अपनाने” में आगे रहते हैं.
वो होटल जाकर रुपये 5,000/- का चूना लगाना नहीं पसंद करता
जबकि वर्तमान शिक्षा उसे होटल जाकर ऐश करना, यही जीवन का मजा है, ये सिखाती है.

रुपये 5,000/- से एक साधर्मिक को कितना फायदा हो सकता है,
वो “सर्व मंगल मांगल्यं” का “अर्थ” जानने वाला ही महसूस कर सकता है.

 

विदेशी शिक्षा में इस बात की सोच भी नहीं है.
उनके अनुसार ये जमाना “टफ कम्पीटीशन” का है.

सम्यकज्ञान” से बुद्धि किस तरह “सूक्ष्म” होती है
वो रोज शुद्ध सामायिक करने वाला ही जानता है.

“ज्ञान” के बिना  “धंधा”  नहीं होता
और “पुण्य” के बिना “लाभ” नहीं होता .

 

“ज्ञान” के लिए “सरस्वती” की आराधना करनी है.
(अज्ञानी का पूर्व जन्म का अर्जित पुण्य भी किसी काम का नहीं होता क्योंकि अंतत: वो दुर्गति में ले जाने वाला होता है).

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