संथारा “आत्मउत्थान” की सबसे उत्कृष्ट क्रिया है
संथारा “गहराई” से लिया गया एक निर्णय है.
आत्महत्या करने के बाद या सती होने के बाद व्यक्ति वापस “जीवन” प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि वो “आशारहित जीवन” से मुक्ति पाना चाहता है.
“संथारा” लेने वाला चाहे तो वापस उस प्रतिज्ञा से मुक्त हो सकता है क्योंकि कोई उसके साथ “जबरदस्ती” नहीं करता कि तुम “मर” जाओ. “संथारा” स्वेच्छा से “मरने” की क्रिया नहीं है जिस प्रकार मेडिकल साइंस में “Mercy Killing” की बात की जाती है.
बच्चों की सही देखभाल करने के लिए आज वापस संयुक्त हिन्दू परिवार (Hindu Undivided Family) की जरूरत है.
संथारा “आत्महत्या” की तरह “झोंक” में लिया गया निर्णय नहीं है.
“आत्महत्या” किसी ना किसी मजबूरी में की जाती है – जैसे परीक्षा में फ़ैल होना, बिमारी से परेशान होना, लिया गया लोन चुका ना पाना, एक साथ कई परेशानियों का होना – जिससे व्यक्ति त्रस्त हो गया हो.
“आहार-पानी” का त्याग करना – इससे ये नहीं कह सकते कि “संथारा लेने वाला व्यक्ति” कब जीवन छोड़ेगा (सीधी भाषा में कहें तो कब मरेगा) जबकि “आत्महत्या” करने वाला और “सती” होने वाली स्त्री ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में ही मौत को मुंह लगा लेता/लेती है. दोनों ही “जीवन” नहीं चाहते और “मरना” चाहते हैं.
संथारा इससे भिन्न है.
संथारा लेने वाला व्यक्ति “जीवन पर्यन्त” अन्न-जल का त्याग करता है – मरने के लिए “अन्न-जल” का त्याग नहीं करता. जीते हुए एक बहुत साहस भरा निर्णय लेता है : अपनी आत्मा के उत्थान का!
“संथारा” लेने वाला कायर नहीं होता. आत्महत्या करने वाला कायर होता है.
“संथारा” लेने वाला “मृत्यु” से नहीं डरता क्योंकि वो जीवन जीता है.
“संथारा” होश में लिया जाता है, आत्महत्या “बेहोशी” में ली जाती है.
“आत्महत्या” करने वाला “जीवन” से “डरता” है, इसलिए “मृत्यु” चाहता है.
संथारा हर कोई व्यक्ति नहीं ले सकता.
“आत्महत्या” नौजवान भी करता है परन्तु “संथारा” पूरा जीवन जीने के बाद ही व्यक्ति करता है.
जिसे आत्मा और शरीर का भेद समझ में आ जाता है, और जब व्यक्ति ये समझ लेता है कि ये “शरीर” अब मेरे और काम का नहीं है (बलहीन हो गया है इसलिए साधना के काम नहीं आ सकता), तभी वो अन्न-जल त्याग करता है. फिर भी वो “शरीर” तो तुरंत नहीं छोड़ पाता. जबकि आत्महत्या में तो “शरीर” तुरंत “छूट” जाता है. व्यक्ति चाहे तो भी आत्महत्या में “शरीर” को ज्यादा देर नहीं रोक सकता क्योंकि “शरीर” उसके “कंट्रोल” के बाहर हो जाता है.
संथारा लेने वाले का “शरीर” उसके कंट्रोल में होता है, इसलिए “आत्मा” का होना “सिद्ध” हो जाता है. यदि “शरीर” ही सब कुछ” है, तो फिर व्यक्ति उसी “शरीर” के होते हुवे मरता क्यों है?
एक बात और :
“क़ानून” समाज के लिए बनता है ना कि “समाज” कानून के लिए बनता है.
दुःख कि बात तो ये है कि जैनी होकर भी जो जैन धर्म को नहीं समझते उनमें से ही कुछ लोग जैन धर्म के मूल सिद्धांतों का विरोध करते है. (राजस्थान हाई कोर्ट के फैसले के बाद अब कोई “संथारा” नहीं कर सकता).
फोटो:
श्रीमती ममोल देवी कोचर,बीकानेर
(jainmantras.com के लेखक की सासु-माँ)
87 वर्ष की उम्र और 55 दिन का “संपूर्ण जाग्रत” संथारा
(अंतिम “क्षण” तक “चेतना” रही – “तपागच्छ” के इतिहास में पिछले दो सौ वर्षों में ऐसा संथारा पहली बार हुआ).
Profile Photo साफ़ बता रहा है कि जैन धर्म में “संथारे” का क्या महत्त्व है.
क्या “आत्महत्या” का “उल्लास” इस प्रकार मनाया जाता है?