“संथारा”- जैन धर्म की “आत्मा”

हर धर्म का अपना “विधान” है. “धर्म” क़ानून की किताबों में नहीं पाया जाता. क़ानून में कहीं भी “आत्मा” नाम के तत्त्व की बात ही नहीं है. इसलिए “धर्म” में क़ानून की बात घुसाने का प्रयत्न करना वैसा ही है जैसे एक “मुर्दे” की बॉडी में “आत्मा” को “ढूंढना.”

कल को कोर्ट ये भी कहेगी कि “दिगंबर” साधू “सभ्य” समाज में नंगे घूमते हैं और “क़ानून” में कहीं भी ऐसी इजाजत नहीं दी जा सकती कि कोई इस प्रकार बिना कपड़े पहने रहे.

भगवान ऋषभदेव 6 दिन के, भगवान महावीर 2 दिन के और बाकी 22 तीर्थंकर एक महीने  के संथारे  में “मोक्ष” गए थे.

 

जैनों में भी “संथारा” कोई आम प्रचलन नहीं है. कोई सा व्यक्ति ही इसे करने का “साहस” जुटा पाता  है. प्रश्न ये है कि जो “धार्मिक व्यवस्था” हर कोई नहीं अपना पाता, उससे “पब्लिक इंटरेस्ट” कैसे प्रभावित  होता है?

“क़ानून” की एक “सीमा” है. पब्लिक इंटरेस्ट का अर्थ बहुत विशाल है. पब्लिक इंटरेस्ट वो है जिससे किसी को “गलत” कार्य करने से रोका जाए अन्यथा वो गलत कार्य करने की लाखों लोगों को प्रेरणा मिलती हो.

यदि “संथारा” करने से लोगों को “संथारा” करने की “प्रेरणा” मिलती हो, तो कोई “माई का लाल” संथारा करने के लिए अपना नाम तो लिखा दे!

 

आत्महत्या “छुप” कर होती है, गलत कार्य “छुप” कर ही किया जाता है, खुले आम नहीं.
“संथारा” समाज के सामने किया जाता है, और समाज उसे बड़े आदर की दृष्टि  से देखता है.

क्या आत्महत्या का एक भी समर्थक समाज में मिलेगा?
जबकि “संथारे” का समर्थक पूरा जैन समाज है.

फिर कौनसा कार्य “पब्लिक इंटरेस्ट” में हुआ?

और आत्महत्या और “संथारा” एक जैसे कैसे हुवे?

उत्तर  Crystal Clear है.

 

विशेष:
हिन्दू धर्म में भी “अष्टांग योग में (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि – इनका समावेश है.

“धारणा, ध्यान और समाधि” की स्थिति उत्तरोत्तर ऊँची है.

“ध्यान” के बाद” “समाधि” ही “जीवन” का “अंतिम पड़ाव” है. क्या साधक “समाधि” “मरने” के लिए लेता है?

नहीं!

वो “धारणा” करता है और “शरीर” से अलग होकर “ध्यान” के माध्यम से “आत्मा” में लीन  हो जाता है.

 

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