हे प्रभो, शास्त्रों में कथन आता है कि
• देव मरे, एकेंद्रिय होय.
• देव मरे, एकेंद्रिय होय.
यानी कि देव गति पाना इतना खतरनाक है कि वह हमारी बड़ी मुश्किल से पायी त्रस पर्याय का ही नाश कर देती है.
अगर कोई इस सच्चाई को कोई सांसारिक उदाहरण से तुलना करना करना चाहे, तो बस एक ही द्रष्टान्त से इसकी तुलना हो सकती है.
वह यह है कि जिस तरह किसी बकरे की बली देने से पूर्व उसे खूब खिलाया पिलाया जाता है,
फिर सजा-धजा कर बेंड-बाजे के साथ उसका जुलूस निकाला जाता है और फिर तिलक लगाकर उसका गला काट दिया जाता है;
उसी तरह इस देव भव में भी जीवों को खूब लौकिक सुख मिलता है और फिर सीधे उनकी त्रस पर्याय रुपी गर्दन को काटकर उन्हें एकेंद्रियपने में फेंक दिया जाता है.
वह यह है कि जिस तरह किसी बकरे की बली देने से पूर्व उसे खूब खिलाया पिलाया जाता है,
फिर सजा-धजा कर बेंड-बाजे के साथ उसका जुलूस निकाला जाता है और फिर तिलक लगाकर उसका गला काट दिया जाता है;
उसी तरह इस देव भव में भी जीवों को खूब लौकिक सुख मिलता है और फिर सीधे उनकी त्रस पर्याय रुपी गर्दन को काटकर उन्हें एकेंद्रियपने में फेंक दिया जाता है.
सिर्फ और सिर्फ सम्यकद्रष्टि देवों को छोडकर अरबों-खरबों देवों में से कोई एकाध जीव ही इस दुर्गति को प्राप्त होने से बच पाता है.
अहो, ऐसा जानकर तो सभी लोगों को देवगति के नाम से ही कंपकंपी लगना चाहिये.
साथ ही आपको सोचना चाहिये कि कहीं आप भी ऐसे पापानुवर्ती पुण्य कर्म तो नहीं कर रहे हैं, जिनके कारण से गलती से ही सही, कहीं आपकी देव गति न बंध जाये?
फिर क्या होगा, यह आप सभी अब अच्छी तरह समझ सकते हैं.
अहो, ऐसा जानकर तो सभी लोगों को देवगति के नाम से ही कंपकंपी लगना चाहिये.
साथ ही आपको सोचना चाहिये कि कहीं आप भी ऐसे पापानुवर्ती पुण्य कर्म तो नहीं कर रहे हैं, जिनके कारण से गलती से ही सही, कहीं आपकी देव गति न बंध जाये?
फिर क्या होगा, यह आप सभी अब अच्छी तरह समझ सकते हैं.
अनादि काल से आज तक आप खुद की बली ही देते आरहे हैं, आज भी ऐसा ही हो रहा है और अब आगे ऐसा न हो, इसके लिए आपको बहुत गम्भीर विचार करना चाहिये.
जो जीव इस संसार में मात्र वीतरागीपने की बातें सोच रहा हो, आत्म प्राप्ति की चिंता कर रहा हो, चर्चा कर रहा हो;
उसे ही बहुत उच्च कोटि का अतिशय पुण्य बंधता है,
जो देव भव तो दिलायेगा ही दिलायेगा,
अपितु नियम से उस को मोक्ष में ले जाकर उस का कल्याण करेगा ही करेगा.
देखो भाई, मुक्तिमार्ग के रास्ते में भक्ति-पूजा के कई स्थान आते हैं. उन को कार्यकारी मानकर वहां पर अटकना नहीं चाहिये,
बल्कि सहज भाव से वीतरागपने से भगवान की भक्ति-पूजा कर सिर्फ और सिर्फ अपने चैतन्य-आत्मा के ध्यान में ही आगे बढ़ जाना चाहिये.
जो जीव इस संसार में मात्र वीतरागीपने की बातें सोच रहा हो, आत्म प्राप्ति की चिंता कर रहा हो, चर्चा कर रहा हो;
उसे ही बहुत उच्च कोटि का अतिशय पुण्य बंधता है,
जो देव भव तो दिलायेगा ही दिलायेगा,
अपितु नियम से उस को मोक्ष में ले जाकर उस का कल्याण करेगा ही करेगा.
देखो भाई, मुक्तिमार्ग के रास्ते में भक्ति-पूजा के कई स्थान आते हैं. उन को कार्यकारी मानकर वहां पर अटकना नहीं चाहिये,
बल्कि सहज भाव से वीतरागपने से भगवान की भक्ति-पूजा कर सिर्फ और सिर्फ अपने चैतन्य-आत्मा के ध्यान में ही आगे बढ़ जाना चाहिये.
अहो, ऐसा जानकर सब लोग अपने निज परमपद में ही चिर विश्राम करें, ऐसी मंगल भावना भाते हैं.
आप सभी से मेरा विनम्र निवेदन है कि अगर मेरे किसी भी लेख से आपको अपने अंदर जाने में सहायता मिलती हो, तो उसे सेव करके बार-बार पढ़ें;
विश्वास कीजिये कि इस तरह के चिन्तन-मनन से आपको आपके अनन्त गहराई में समाये निज-परमात्मा की हर बार नई-नई गहराइयों के दर्शन होंगे.
आप सभी से मेरा विनम्र निवेदन है कि अगर मेरे किसी भी लेख से आपको अपने अंदर जाने में सहायता मिलती हो, तो उसे सेव करके बार-बार पढ़ें;
विश्वास कीजिये कि इस तरह के चिन्तन-मनन से आपको आपके अनन्त गहराई में समाये निज-परमात्मा की हर बार नई-नई गहराइयों के दर्शन होंगे.