हमारे कलापूर्ण सूरी!

परम पूज्य श्री कलापूर्ण सूरी कहते हैं:-
1. पापियों को तो तीर्थंकर भी नहीं सुधार सकते.

(बात “कालसौरिक”  कसाई और “कपिला” दासी की आती है, वो अपनी “आदत” नहीं छोड़ सके. जबकि भगवान की वाणी सुनकर उसी कसाई का पुत्र भगवान  का भक्त बन गया – कसाई का बेटा और “जैन धर्म” का पालन करे! – क्या हम ये सोच भी सकते हैं)!

हम “रात्रि भोजन” और “कंदमूल” नहीं छोड़ सकते जबकि जैन धर्म में इसे स्पष्ट रूप से “नरक का प्रथम द्वार” कहा गया है. हमें तो “होटल्स” बड़े शानदार लगते हैं! क्या “Decent Look, Fine Dish और Decoration” होता है! हमें ये बात भी “स्वीकार” है कि वहां Veg और Non-veg की किचन अलग रखी जाती है. क्या एक जैनी किसी “Non-Veg” पकने वाले” व्यक्ति के घर Veg खाना खाने की सोच भी सकता है, भले ही उसका घर बहुत शानदार हो?

 

जहाँ भी Non-Veg होटल्स में Veg  भी बनता हो, उस होटल्स को ऐसा मानो कि ये “नरक” की  “Advertisement Agency” है.

बात यदि फिर भी  “दिमाग” में ना “घुसी” हो तो “Paragraph Heading” दोबारा पढ़ें.

2. “पुण्य” के बिना “गुण” नहीं आते. किसी भी “संयोग” के कारण यदि “धर्म” नहीं अपना पा रहे, तो “पुण्य” की कमी है.

प्रश्न:
हमारा “पुण्य” कैसे प्रकट हो?

 

पहले प्रतिप्रश्न:
१. क्या आप अपने आप को “अभागा” समझते हो?
व्याख्यान में कभी भी भरी सभा में किसी “साधू” ने कहा है कि “हे अभागों!”

कभी नहीं!
वो हरदम आप को हे पुण्यशालिओं! ऐसा सम्बोधन देते हैं.
क्या वो “झूठ” बोलते हैं?
क्या “पांच महाव्रत” का पालन करने वाले आपको “फुसलाने” के लिए ऐसा कहते हैं?

उनके पहले ही सम्बोधन पर “हे पुण्यशाली” पर हमें “विश्वास” नहीं है तो क्या हमारी Category कपिला दासी जैसी नहीं है – जिसे भगवान के वचन पर विश्वास ना होकर अपने “दान ना देने के प्रण” की importance ज्यादा थी?

उत्तर :
“पुण्य” प्रकट करने के लिए “तीर्थंकर और गुरुओं ” की शरण लेनी होगी.
फिर भी समझ में ना आये तो “गुरु” के “पास” पहुँचो.
इसकी कोई फीस भी नहीं भरनी है और कोई “पास” भी नहीं लेना पड़ेगा.

 

3. लेखक, चिंतक, वक्ता, प्रतिष्ठित पुरुष हम बन जाए, इसमें बहुत बड़ा खतरा है. “मोहराजा”  की बड़ी चाल  है.

उत्तर : …………….
(आप स्वयम् देवें).

4. गौतम स्वामी के सारे के सारे यानि 50000 शिष्य केवली बने. परन्तु सभी के सभी “सुधर्मा स्वामी” को सौंप दिए.

“खुद” “हनुमान” बन कर “महावीर” के पास रहे. (नहीं तो शिष्यों  के पास रहना पड़ता).

तभी तो भगवान के “मोक्ष” जाने पर 80 साल का “बच्चा” ऐसे फूट-फूट कर “रोया”  जैसे उसका “सर्वस्व” लुट  गया हो.  और जब “सर्व” (“मोह” भी ) सौप दिया तभी “स्व” की प्राप्ति हो गयी. यानि केवलज्ञान प्राप्त हो गया.

 

विशेष :

“सूरी-मंत्र” में कभी भी “गणधर” का  स्थान नहीं होता पर “भगवान महावीर स्वामी” ने “गौतम स्वामी” का स्थान उसमें रखा. एक “गुरु” अपने “शिष्य” को ये मान तभी देता है, जब शिष्य अति विनम्र हो. शिष्य को   इससे बड़ा और कौनसा Certificate चाहिए!

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