जैन धर्म में “विनय-व्यवहार” की “उत्कृष्ट शिक्षा”

प्रात: स्मरणीय कलापूर्ण सूरिजी कहते हैं:

“गृहस्थ जीवन में रह कर भी ऐसी साधना की जा सकती है कि ज्ञानिओं को भी कहना पड़े कि आप “साधू” जैसे बन गए.
“समणो इव सावओ हवई जम्हा” – सामयिक पारते  समय “सामाईअ वयजुत्तो” सूत्र में ये शब्द आये हैं.

उदायी राजा, कामदेव, आनंद आदि दस श्रावकों के उदाहरण “श्री उपासकदशा” में आते हैं. भगवान महावीर ने भी कहा था : आज रात को आनंद श्रावक ने उत्कृष्ट परिषह (typical problems) सहन किये.”

 

प्रश्न : चारित्र के परिणाम (केवलज्ञान) आ गए हों तो फिर विधि की क्या जरूरत है?

उत्तर: 1444 ग्रंथों के रचयिता श्री हरिभद्रसूरी कहते हैं कि हमारी विधि ही ऐसी है कि “चारित्र” के परिणाम ना जगे हों, तो जगे. यदि जगे हुवे हों, तो निर्मल बन कर “स्थायी” रहें. तीसरा कारण – वैद्य  की तरह ये सब प्रकार से सुखकर है.

(हमें अच्छा बोलना आ गया हो तो क्या अच्छा बोलना अब छोड़ दें? अच्छा लिखना आ गया हो तो क्या अच्छा लिखना छोड़ दें? इन सब को छोडो, जिसे अच्छा Dance  करना आता है, क्या वो Dance छोड़ देने के लिए तैयार होगा)? और तो और, अच्छे से अच्छा Singer भी रोज रियाज़ करता है. अच्छे से अच्छा क्रिकेटर नेट प्रैक्टिस करता है.

 

प्रश्न :केवलज्ञानी को क्या बाकी रहा जिससे तीर्थंकर की देशना सुनने के लिए बैठे? क्या जरूरत है? समवसरण में केवली पर्षदा का आयोजन (Sitting arrangement of Kevalis)  क्यों?

उत्तर: यह व्यवहार है. गुरु को देखकर “शिष्य” भी सीखे. दूसरे लोगों में भी भगवान के प्रति बहुमान हो. तीर्थंकरों की महिमा में वृद्धि हो. केवलज्ञानी होने के बाद क्या “ज्ञान” का “उपयोग” छोड़ दे? तो फिर “ज्ञान” ही क्या हुआ?

गुरु गौतमस्वामी छद्मस्थ (जो केवली नहीं हों, उन्हें छद्मस्थ कहा जाता है) हैं, उनके कारण 500 तापस केवलज्ञानी हैं फिर भी केवलज्ञानी पीछे चलते हैं.

 

केवलज्ञानी शिष्य, छद्मस्थ गुरु चंडरुद्राचार्य को उठकर घुमते हैं, उनके डंडे की मार भी सहन करते हैं.

केवली “कूर्मा  पुत्र” छ: महीने तक माता-पिता की सेवा भी करते हैं.

सचमुच “विनय-व्यवहार” महान  है. 

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