“आध्यात्म” या “धर्म?”

“आध्यात्म” या “धर्म?”
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“धर्म” में “आध्यात्म” होता है.
जबकि “आध्यात्म” का कोई “धर्म” नहीं होता.

जो किसी “धर्म” से “सम्बंधित” नहीं रह कर
सिर्फ “आध्यात्म”” की बात करता है
वो “गुरु” जरूर बन जाता है
पर “ईश्वर” की बात नहीं कर पाता.

सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश के विषय में
“जैन-धर्म” “ईश्वर” को “कर्त्ता” नहीं मानता.
“काल” का प्रभाव मानता है.

मात्र इस बात के लिए भी अन्य दर्शन
जैन दर्शन को “अनीश्वरवादी” मानते हैं.
जबकि जैन दर्शन में
“अरिहंत” उनके “ईश्वर” हैं.

“धर्म” एक अनंत काल से चली आ रही “व्यवस्था” है.
“आध्यात्म” में ऐसी कोई “व्यवस्था” नहीं होती.
क्योंकि सभी की “आत्म-स्थिति” एक सी नहीं होती.

ये बहुत ही “गहन” विषय है.
ऊपर लिखी बात तो सिर्फ उसकी एक “झलक” है.

“आध्यात्मिकता” में “व्यवस्था” ना होने के कारण
ज्यादातर लोग आगे जाकर “भटक” जाते हैं
और अपने “अनुयायियों” को भी “भटकाते” हैं.

ये स्थिति तब आती है जब “वास्तव” में
वो “दूसरों” को “वो” ना दें
जो “स्वयं” को प्राप्त हुआ है.

“आध्यात्म” एक “सुप्रीम पावर” है
यदि उसे “स्पीड” से नहीं बहाया गया
तो वो “पथभ्रष्ट” तक कर देता है.

ऐसे बहुत से “उदाहरण ” देखने को मिल जाएंगे.
यहाँ पर “किसी” का नाम लेकर “विवाद” खड़ा नहीं करना चाहता.

जिसे भी “आध्यात्म” में थोड़ा भी “रस” है
वो इस “स्थिति” को बड़े आराम से जान सकता है.

“साधना” करते समय भी
जब बहुत अधिक “पावर”
शरीर में प्रवेश करता है
तो “झटके” (वाइब्रेशन्स) लगते हैं.
“गुरु” की “अनुपस्थिति” साधक को “डरा” भी देती है
कई लोग “साधना” के समय “पागल” भी होते देखे गए हैं.

“आध्यात्मिक पुरुष” को “फॉलो” करना
उसके इस जगत में “शरीर” से “उपस्थित” रहने तक ही होता है
आने वाली “पीढ़ी” उसका “विशेष फायदा” नहीं उठा पाती.

क्योंकि “आध्यात्म” को “शब्दों” से समझाना “संभव” ही नहीं है.

जबकि “धर्म” को “शब्दों” से “समझाया” जा सकता है.
इसीलिए पब्लिक और आने वाली पीढ़ियों के लिए
“आध्यात्म” से अधिक “धर्म” की महत्ता है.

(धर्म में “आध्यात्म” है ही)

प्रश्न:
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भगवान् महावीर “आध्यात्मिक” पुरुष थे या कुछ अन्य?

उत्तर:
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जैसा कि पहले बताया गया है कि “धर्म” में “आध्यात्मिकता” होती है
क्योंकि वो “आत्मा” की बात करता है.
इसीलिए भगवान् महावीर “तीर्थ” की स्थापना करने के कारण
आध्यात्मिक पुरुष भी थे ही.

उन्होंने आचार्य, उपाध्याय, साधू, श्रावक और श्राविका की
अलग अलग व्यवस्था की.

अलग अलग सूत्रों को पढ़ने का अधिकार उनकी “स्थिति” के अनुसार दिया.

“आध्यात्मिकता” में ये “व्यवस्था” नहीं होती
क्योंकि उनके अनुसार इसकी “जरूरत” नहीं है.

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