कुछ लोग जैन दीक्षा एवं मंदिरों पर किये गए खर्च को व्यर्थ बताते हैं.
धर्म के बारे में समझ नहीं होने के कारण ऐसी बात करते हैं.
हर व्यक्ति के बचपन के संस्कार उसमें कायम रहते हैं.
आदत व्यक्ति को मजबूर करती है.
ये बात अलग है कि किसमें कौनसी आदत है.
जिस प्रकार एक आदमी को रोज सवेरे भगवान के
दर्शन किये बिना चैन नहीं पड़ता
व
दर्शन किये बगैर वो कुछ भी मुहं में नहीं डालता.
और दूसरे को सवेरे चाय पीये बगैर कुछ अच्छा नहीं लगता.
जो लोग फाइव स्टार होटल्स में जाकर
एक दिन का कुल खर्च १५०००-२५००० करते हैं,
उनकी भड़काऊ जीवन शैली पर कोई बात नहीं करता कि ये सब व्यर्थ है.
कारण?
लोगों ने मान लिया है कि अच्छे जीवन के लिए ये बहुत जरूरी है.
अब वास्तविकता क्या है वो देखें:
चुस्त जैन धर्मी चाहे बहुत पैसे वाला हो,
वो तो तीर्थ स्थान पर जाकर अच्छी तरीके से नहाता भी नहीं है
क्योंकि उसको पूजा करने की जल्दी रहती है.
उसी तीर्थ में भोजनशाला में भोजन भी करेगा और दान भी लिखायेगा.
मंदिरों में पैसा खर्च करने वाले एवं दीक्षा लेने वाले
जिस तरह से पैसे का उपयोग करते है
जरा सोचो यदि ये पैसा यहाँ नहीं लगेगा तो कहाँ लगेगा-
होटलों में, शोबाज़ी में, डेकोरेशन में.
इसमें क्या “प्राप्त” होता है, कभी विचार किया है?
डेकोरेशन के नाम पर २५ लाख रुपये एक दिन में उड़ाने वाले
और
रिसेप्शन के नाम पर भोजन के लिए एक प्लेट पर १५०० रुपये उड़ाने वाले
का कोई विरोध क्यों नहीं करता?
उत्तर है :
मंदिरों एवं दीक्षा का में पैसे खर्च का विरोध करने वाला
स्वयं उसकी मौज मनाता है!
फोटो :
भव्य प्राचीन जैन मंदिर,
अनारकली, लाहौर (पाकिस्तान)