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“मंत्र” का “शरीर” पर प्रभाव

मंत्र जपने से शरीर में कांति आती है.

मानो कि हम किसी नए विषय को लेकर बैठे हैं.
और उसके बारे में हमें बहुत ही सामान्य सी जानकारी है.
परन्तु निरंतर अभ्यास से हमें उसे विषय में निपुणता आ जाती है.

ठीक उसी प्रकार मंत्र जप को समझें.
निरंतर अभ्यास से मंत्र के “रहस्यों” के परदे अपने आप खुलते हैं.

 

यद्यपि सभी को एक सा अनुभव नहीं होता, फिर भी सभी का अनुभव अपने आप में बेमिसाल होता है.
सभी का अनुभव एक सा नहीं होने के बहुत से कारण हैं, सभी के मन की स्थिति एक सी नहीं होती. अरे! एक ही मनुष्य के मन की “स्थिति” एक समान कभी नहीं होती. सभी की “आत्मा” की स्टेज अलग अलग होती है इसलिए सभी को उतना ही प्राप्त होता है, जितने की उनकी योग्यता होती है.

यदि मंत्र जप गुरु के सान्निध्य में किये जाए, तो उनके मार्गदर्शन के कारण ऊंचाई पर जल्दी पहुंचा जा सकता है.
हालांकि ये भी सत्य है कि स्वयं भी वहां तक पहुंचा जा सकता है, परन्तु इसमें मेहनत  और समय दोनों ज्यादा लगेंगे.

 

“श्रेणिक महाराजा” की मृत्यु होने के बाद जब दाह संस्कार किया जा रहा था,
तब उनके शरीर से “वीर-वीर” की ध्वनि निकल रही थी.
यद्यपि इससे उनके निष्प्राण शरीर में कोई “जीवन” नहीं आ गया था
परन्तु “वीर-वीर” के निरंतर मंत्र जप से वो स्वयं भी “मन्त्रमय” हो गए थे
और उनकी “आत्मा” वीरमय हो गयी थी.
(इसीलिए आने वाले भव में इस भरत क्षेत्र में वो पहले तीर्थंकर होंगे).

जिन लोगों ने आज तक खूब नवकार गिनें हैं, उन्हें ये चेक करना चाहिए कि क्या वो जप के समय कुछ विशेष अनुभव करते हैं या रोज माला फेरकर वहीँ आ जाते हैं जहाँ से “शुरू” करते हैं.
(इसका अर्थ समझने की चेष्टा करें).

 

jainmantras.com पर कल ही एक भाई का मैसेज आया था कि मेरे माता-पिता दोनों को पांच वर्ष से कैंसर है. हमारे परिवार की श्रद्धा मात्र नवकार पर ही है. निरंतर जप से दोनों का कैंसर रोग अब काफी हद तो जा  चुका है.

इससे ये प्रूव होता है कि साधना करने का अधिकार सभी को है,
पर उस “अधिकार” का इस्तेमाल सभी करते हैं या नहीं, ये अलग बात है.

विशेष: यहाँ “शरीर” का अर्थ मात्र भौतिक शरीर तक ना लें.

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