jainmantras.com में “नवकार महामंत्र” के “विराट स्वरुप” पर लिखना एक दु:साहस ही है,
फिर भी लिखने से रोक नहीं पा रहा.
जिस प्रकार एक बच्चा तोतली भाषा में अपनी माँ को वो समझा देता है जो उसे चाहिए (और कोई उसकी भाषा को समझ नहीं पाता ). उसकी तोतली भाषा “माँ” समझ भी जाती है कि उसे क्या चाहिए और “ख़ुशी” से दे भी देती है. उसी प्रकार ये प्रयास समझना.
एक उच्च कोटि के साधक को भी “भगवान” बड़ी साधना के बाद दर्शन देते हैं, तो पापियों को तो दर्शन कहाँ से सुलभ होंगे?
फिर भी मुट्ठी भर जैनिओं ने लगभग हर गाँव में, जहाँ जहाँ वो बसे, कम से कम एक जैन मंदिर बनाया ताकि जहाँ भी वो जाएँ “भगवान” के रूप का दर्शनऔर स्तुति रोज कर सकें :-
दर्शनम् देवदेवस्य, दर्शनम् पाप नाशनम्,
दर्शनम् स्वर्गसोपानाम् , दर्शनम् मोक्ष साधनम् ||
हम सभी में “सद्बुद्धि” “हरदम” रहे, इसके लिए सभी पाठक “साक्षात” माँ सरस्वती को प्रणाम करके, एकदम चित्त लगाकर, आगे की पोस्ट पढ़ें जिससे हम सभी का “कल्याण” हो.
पहले नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप- 1-5 पढ़ें.
पूर्वभूमिका:-
श्री मानतुंग सूरी श्री भक्तामर स्तोत्र की तीसरी गाथा में आदिनाथ भगवान को कहते हैं :
“बुध्द्या विनाsपि विभुधार्चित पाद पीठ…….. बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब”
मुझ में इतनी बुद्धि नहीं है कि मैं आपकी “स्तुति” कर सकूँ फिर भी जिस प्रकार एक बालक “समुद्र” के विस्तार को अपने नन्हे हाथों को फैलाकर बताने की कोशिश करता है, वैसे ही मैं आपकी “स्तुति” करने का “प्रयास” कर रहा हूँ.
गाथा का रहस्य :-
स्तुति करते समय श्री मानतुंगसुरी के मन के भाव ऐसे हो गए जैसे वो आदिनाथ भगवान से प्रत्यक्ष बात कर रहे हों!
(क्या हमें कभी ऐसा लगा है कि हम भगवान के पास ही बैठे हैं)?
“बच्चे” के रूप में आदिनाथ भगवान को इन्द्रों द्वारा “अभिषेक” करवाने के दृश्य को देखकर अति आनंदित हुवे. “बच्चे” के रूप में उनके “चमत्कृत रूप” को देखकर वो स्वयं को “छोटा बच्चा” समझने लगे.
(फाइव स्टार्स होटल्स को देखकर लोग जो आनंद लेते हैं, वो तो इसके सामने “minus marking” वाला है क्योंकि वहां तो non-veg पकता है इसलिए वो वस्तुतः दुर्गति में ले जाने वाला है – जो जैन फाइव स्टार होटल्स में पार्टीज और शादियां कर रहे हैं, वो सावधान!).
हम जो भी उत्कृष्ट देखते हैं, क्या उसका वर्णन “शब्दों” में कर सकते हैं?
नहीं!
एक बच्चा दूसरे बच्चे को देख कर खुश होता है.
एक बड़ा भी एक बच्चे को देख कर खुश होता है.
जबकि उस बच्चे से बड़े को क्या मिलता है?
(हम हरदम “कुछ” प्राप्ति की “इच्छा” में लीन रहते हैं, इसलिए ये कहा है)
बड़े को बच्चे का आनंद लेना है, तो बच्चे जैसी भाषा में ही बात करनी होती है,
बुजुर्गों वाली भाषा में नहीं! 🙂
आगे नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप- 7 पढ़ें.